________________
हेमचन्द्राचार्य प्रणीत 'वीतराग स्तव' रस एवं काव्य की दृष्टि से
जयंत कोठारी
अनु. जशवंती दवे विदित है कि संस्कृत काव्यशास्त्र में पहले आठ ही रस बताये गये थे। बाद में नौवाँ शांत रस जोडा गया है। शांत रस माने शम या निर्वेद के भाव का चित्रण | संभव है कि शम या निर्वेद के भावका - जहाँ रागादि कोई भावना बची न हो, उन सारी भावनाओं का शमन हो गया हो उस स्थितिका - चित्रण काव्यत्व या रसत्व कैसे प्राप्त कर सके ऐसी समस्या होगी । श्वेत रंग रंगहीनता ही है अतः वह मनोरम नहीं बन सकता वैसे वीतरागता या निर्लेपता भी कोरी पट्टी, निर्वर्ण स्थिति ही है । उसका वर्णन कैसे किया जाय ? उसे रसमय कैसे बनाया जाय ?
इस प्रश्न का उत्तर हमें हेमचन्द्राचार्य विरचित 'वीतराग स्तव' में से मिलता है | वीतराग स्थिति का वर्णन करनेवाली यह कृति है फिर भी उसने काव्यत्व एवं रसत्व प्राप्त किया है । इस कृति का अनुशीलन करने से समझ में आता है कि केवल शमभाव या निर्वेदभाव का निरूपण अशक्यवत् है, उसमें दूसरे किसी भाव का अनुप्रवेश अनिवार्य है। यहाँ विस्मय, देवरति, भक्ति एवं उसके संचारिभावों का गुम्फन किया गया है, अर्थात् शांत रस के निरूपण में अद्भुत, भक्ति आदि रसों का अनुप्रवेश हुआ है । अद्भुत के आधार है वीतरागदेव की अन्यदेवविलक्षणता, अनन्यता, असाधारणता, अलौकिकता, ऐश्वर्य इत्यादि । भक्ति के आधार हैं वीतरागदेव प्रति रति, शरणागति, आत्मनिंदा, समर्पणभाव आदि । अब देखें यह किस प्रकार किया गया है।
वीतरागदेव की निर्वेद एवं निवृत्ति की स्थिति का प्रत्यक्ष वर्णन भले ही असंभव हो पर वे अलोकसामान्य है एसा तो जरूर बताया जा सकता है | अतः वीतरागदेव में यह नहीं है, वह नहीं है ऐसा तो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org