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________________ यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया । वीतदोषकलुषः स चेद् भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते।। ३१ ।। (अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका) वळी, बंने रचनाओनी ऊडाणथी तुलना करतां घणीवार एवं पण जोवा मळे छे के निरूपणनी रीति समान होय अने छतां विषय के भाव तद्दन जुदा होय । मातृचेटे कोइ मुद्दो जे रीतथी के शैलीथी निरूप्यो होय ते ज शैलीनो विनियोग हेमचन्द्राचार्य पण करे, पण तेमनो निरूपणीय मुद्दो साव जुदी ज भातनो होय । आ बधुं जोतां मातृचेटनां पद्योनी केवी प्रगाढ असर हेमचन्द्राचार्यनी रचना उपर पड़ी हशे, ते अत्यंत सरळताथी कही शकाय तेम ज अटकळी शकाय तेम छ । बीजी महत्त्वनी वात ए छे के मातृचेटे अध्यर्धशतकनां १२ प्रकरणोने १२ स्तवनां नाम आप्यां छे : उपोद्घात स्तव, निरुपम स्तव, रूप स्तव, वचन स्तव, प्रणिधि स्तव, हेतु स्तव, अद्भुत स्तव वगेरे | तो हेमाचार्ये वीतराग स्तवना २० प्रकाशोने आ प्रमाणे ज २० नामो आप्यां छे : प्रस्तावना स्तव, सहजातिशय स्तव, कर्मक्षयजातिशय स्तव, जगत्कर्तृत्व निरास स्तव, एकान्तनिरास स्तव, कलि स्तव, अद्भुत स्तव, हेतुकर्तृनिरास स्तव - वगेरे । अने आ रीते विचारतां 'वीतराग स्तव' ए, नाम ज योग्य लागे छे; 'वीतराग स्तोत्र' नहि, ए पण, प्रसंगोपात्त, अहीं समजी लेवू घटे | भारतीय धर्म-दर्शनपरंपरामां आदान-प्रदाननी एक सुदीर्घ अने विवेकपूर्ण परंपरा पहेलेथी ज रही छे । श्रुतस्थविर अने दर्शन प्रभावक प्रवर्तक मुनिराज श्री जंबूविजयजी महाराजे शोध्युं छे के श्री उमास्वाति महाराजे मुनिने आहार लेवानी प्रक्रियाना वर्णनमां व्रणलेप, अक्षोपांग अने पुत्रपलनां त्रण दृष्टांतो (प्रशमरति, १३५) वर्णव्या छे त नु मूळ बौद्ध महाकवि अश्वघोषना सौन्दरनन्द काव्यमां मल्युं छे । भगवान हरिभद्राचार्ये षोडशकमां एक स्थळे 'दृष्टिसम्मोह' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001453
Book TitleVitragstav
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages100
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Worship
File Size5 MB
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