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________________ प्रस्तुत प्रकाशनमा मुख्यत्वे क्रमांक १ प्रतिनो ज उपयोग थयो छे. क्रमांक २ प्रति ते क्रमांक १नी नकल होवा उपरान्त अशुद्धिनो भंडार छे तेथी तेनो उपयोग करवो मुनासिब नथी मान्यो. क्र. ३नी प्रति मात्र एक ज सर्ग धरावती प्रति छे. अने तेनी प्रतिलिप आ पुस्तकमां परिशिष्ट-१ तरीके मूकी छे. आ प्रतिनी नकल प्रकाशन कार्य दरम्यान छेक छेल्ले मळी होई तेनो उपयोग आ रीते ज थई शक्यो छे. आमां क्र. १ वाळी प्रतिमां १५-१६ ए बन्ने सर्गोने पंदरमा सर्ग तरीके ओळखाव्या होई, कुल १६ सर्ग ज होवानुं समजाय छे, पण वस्तुतः १७ सर्गो ज छे. क्र. १ प्रतिनी वाचनामां तथा मुद्रित हीरसौभाग्यनी वाचनामां केटलेक स्थळे तफावत मळे छे, ते तमाम स्थळो तथा तफावतोनो निर्देश जे ते स्थळे पाठनोंधो(Foot notes)मां दर्शावेल छे. मुद्रित हीसौ०मां केटलेक स्थळे टीका होवा छतां पद्यो नथी. ए पद्यो हीसु०नी प्रति क्र. १मां अकबंध जळवायां छे. ए उपरान्त; मुद्रित हीसौ० मूळ तथा वृत्तिमां घणी अशुद्धिओ जोवा मळे छे, तेनुं मार्जन हीसुं० द्वारा महदंशे थई शके तेम छे : आ बे बाबतो हीसुं० द्वारा थती उपलब्धि गणाय. क्र. ३नी प्रति ए शुद्धरूपेण हीरसुन्दर काव्यनो खरडो जणाय छे. खरडो एटला माटे के तेना प्रथम सर्गनी मुख्य वाचनानी साथे ज, ते ज प्रतिमां, हांसियामां ते वाचनागत घणां पद्योनां के पद्यांशोना पाठान्तरो पण आलेखायां छे. ईडरनी प्रतिमां माजिनमां जोवा मळतां सूक्ष्म अक्षरो ते पादटीप नथी, पण पद्य-पद्यांशना, कर्ताना मनमा उद्भवेलां पाठान्तरो छे, ते नोंधq जरूरी छे. अने आज कारणे, ईडरनी प्रति ते काव्यना कर्ता पं. श्री देवविमलगणिना स्वहस्ताक्षर छे एवं विधान जरा पण अंदेशा विना कही शकाय तेम छे. शुद्ध पाठ अने मूळपाठनां ज फेरफारोनी नोंध-आ लक्षणो ‘कर्त्तानो स्वहस्त' होवा बाबते नक्कर आधार बनी शके. कर्ता सिवाय मूळपाठमां फेरफार कोण करे ? कोण करी शके ? सारांश ए छे, कर्ता ए प्रथम हीसुं० रच्यु, ते पण तेना विविध आकार-प्रकारो बदलतां-बदलतां. छेल्ले एक आकारमा स्थिर कर्यु हशे, अने ते पछी हीसुं०नुं हीसौ०मां रूपांतर सूझ्युं हशे. तेथी आपणने हीसौ०नुं मळतु स्वरूप सांपड्यु. हीरसौभाग्य/हीरसुन्दरनी टीकाओ जेवू मूळ हीसुं०/हीसौ० काव्य माटे, तेवू ज तेनी टीका परत्वे पण छे. कर्त्ताए पोताना आ काव्यनी एक नहि, त्रण-त्रण वृत्तिओ रची छे, जे साहित्यना इतिहासमां एक विरल के अजोड घटना गणाय. तेमणे पहेलां हीसुं० पर टिप्पणी रूप साव नानी टीका लखी. आपणे सगवड खातर तेने 'हीसुं०'नो पर्याय एवं नाम आपी शकीए. ए पछी तेमणे हीसौ०नी लघुवृत्ति रची, जेनी एकमात्र प्रति अमदावाद-डेलाना उपाश्रयना भंडारमाथी उपलब्ध थई शकी छे, अने जेनी संपादित वाचना आ प्रकाशनमां आपी छे. अने त्यार पछी तेमणे हीसौ०नी बृहद्वृत्ति बनावी, जे मुद्रित हीसौ०मां उपलब्ध छे. एक ग्रन्थकारना, एक सर्जकना मनोव्यापारो केवी रीते सतत पलटाता रहे छे, अने पोताना सर्जनमां केवा अने केवी रीते सुधारा-वधारा-उमेरा-परिवर्तन करता रहे छे - तेनुं आ एक श्रेष्ठ दृष्टान्त गणी शकाय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001449
Book TitleHirsundaramahakavyam Part 2
Original Sutra AuthorDevvimal Gani
AuthorRatnakirtivijay
PublisherJain Granth Prakashan Samiti
Publication Year2005
Total Pages426
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Biography
File Size22 MB
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