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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण
होने से 'धातो:' के अधिकार की जरूरत नहीं है। जबकि 'योऽनेकस्वरस्य २/१/५६ में 'य' का 'स्थानी' अनुक्त होने से 'धातो:' का 'अधिकार' यहाँ पुनः प्रादुर्भूत होता है । ॥१३॥ अर्थवशाद् विभक्तिपरिणामः ॥
अर्थ के अनुसार विभक्ति का परिणाम / परिवर्तन होता है ।
'परिणाम' अर्थात् परावर्तन/ परिवर्तन, प्रथम सूत्र स्थित अन्यविभक्त्यन्त पद का, 'अगले सूत्र में अनुवर्तन होता है तब सामान्यतया अन्यविभक्त्यन्त होता नहीं है, जैसे गोधा (घो ) / गोह सर्प की तरह सरकती होने से वह साँप नहीं हो जाती है, वैसे अन्यविभक्त्यन्त की अनुपपत्ति के निषेध के लिए यह न्याय है । इसका अर्थ इस प्रकार है -: अर्थ को वश होकर, अन्यविभक्त्यन्त का अन्यविभक्त्यन्त के रूप में परिवर्तन होता है । उदा. 'अत आः स्यादौ जस्भ्याम्ये १/४/१ सूत्र में ' षष्ठ्यन्त' के रूप में प्रयुक्त 'अतः ' शब्द की अनुवृत्ति जब 'भिस ऐस्' १/४/२ सूत्र में आयेगी तब 'पञ्चम्यन्त' के रूप में परिवर्तित होगा ।
इस न्याय का ज्ञापक सूत्र 'अद् व्यञ्जने' २/१/३५ है । इसी सूत्र में 'स्थानी' का निर्देश नहीं किया गया है । यदि 'स्थानी' के रूप में पूर्व के 'इदम:' २/१ / ३४ सूत्र से 'इदम: ' स्वरूप ' षष्ठ्यन्त' की अनुवृत्ति लेने पर ' षष्ठ्यान्त्यस्य' ७/४/ १०६ परिभाषासूत्र से 'इदम्' के अन्त्य 'म्' का ही 'अ' आदेश होगा किन्तु संपूर्ण 'इदम्' का 'अ' आदेश नहीं होगा, किन्तु प्रयोग में संपूर्ण ‘इदम्' का 'अ' आदेश दिखायी पडता है, अतः 'अद् व्यञ्जने' २/१ / ३५ सूत्र में स्थानी के रूप में प्रथमान्त 'इदम्' शब्द मालूम देता है, तथापि / ऐसा होने पर भी 'अद् व्यञ्जने' २/१/३५ सूत्र में 'स्थानी' का सर्वथा अग्रहण, इस न्याय के बल से 'षष्ठी' का प्रथमा में परिवर्तन होने की संभावना से ही किया गया है। इस बात का निश्चय, उसके बाद के / अगले 'अनक्' २ / १ / ३६ सूत्र में 'इदम्' के विशेषण 'अनक्' को प्रथमा विभक्ति में रखा है, उससे होता है । वही 'अनक्' विशेषण अपने विशेष्य 'इदम्' की भी प्रथमा विभक्ति का सूचन करता है । वह भी इस न्याय से सिद्ध होता है ।
यह न्याय चल/अनित्य होने से 'तृतीयस्य पञ्चमे ' १ / ३ / १ सूत्र से आनेवाला 'तृतीयस्य' पद की 'तृतीयात्' पद में परिवर्तन होने की संभावना होने पर भी, अगले सूत्र 'ततो हश्चतुर्थः ' १/३/ ३ सूत्र में 'ततः ' शब्द रखा है। यह 'ततः ' शब्द ही सूचित करता है कि 'अर्थवशाद् विभक्तिपरिणाम:' न्याय अनित्य है ।
प्रथम हम यह देख लें कि इस न्याय की प्रवृत्ति कहाँ, कैसे होती है । इस न्याय का उपयोग विभक्ति का विपरिणाम / परिवर्तन करने के लिए होता है और वह भी, वहाँ ही कि जहाँ 'विभक्तिविपरिणाम' के लिए कोई प्रयत्न न किया हो, किन्तु जहाँ सूत्रकार ने स्वयं ही स्पष्ट रूपसे विभक्तिविपरिणाम' किया हो, वहाँ इस न्याय का उपयोग नहीं करना चाहिए। उदा. 'ततो हश्चतुर्थः ' १/३/३, ‘ततोऽस्याः' १ / ३ / ३४ ' ततः शिट: ' १/३/३६ इन तीनों सूत्रों में 'ततः ' शब्द से अनुक्रम से 'तृतीयस्य' का 'तृतीयात्', 'अञ्वर्गस्य' का 'अञ्वर्गात्' और 'प्रथमद्वितीयस्य' का 'प्रथम
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