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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १२)
३९ करके कहा है कि यह न्याय/सिद्धांत केवल पद की ही अनुवृत्ति या निवृत्ति को ही कहनेवाला या नियमन करनेवाला नहीं है किन्तु जिस अर्थ के बारे में, जिस पद की शक्ति का निश्चय किया गया हो और जहाँ जिस शास्त्र से जो स्वाभाविक कार्य होता है वहाँ उससे भी ज्यादा कार्य करने के लिए इस न्याय का उपयोग होता है । कहीं/कदाचित् बाध्य को भी बाधक बनाया जाता है । यह बात महाभाष्य के विवेचन से स्पष्ट होती है और सिद्धहेम में 'अपायेऽवधिरपादानम्' २/२/२९ और 'क्रियाश्रयस्याधारोऽधिकरणम्' २/२/३० सूत्र में अनुक्रम से 'अपादान' के तीन प्रकार और अधिकरण' के छः प्रकार बताये हैं । वह इस बात को सिद्ध करता है।
जहाँ अनुवर्तमान पद की निवृत्ति के लिए कोई ज्ञापक हो, वहाँ स्वभाव से ही इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है । उदा. 'प्रत्यये च' १/३/२ सूत्र में 'च' पूर्व के सूत्र में से चली आती 'वा' की अनुवृत्ति को रोकता है और वह अगले सूत्र में पुनः प्रवृत्त होता है, और वह ‘च सूचित' है, अतः वहाँ स्वभाव से ही इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है ।
'शषसे शषसं वा' १/३/७ में 'वा' विकल्प की अनुवृत्ति को रोकता है अर्थात् विकल्प को निवृत्त करता है । आ. श्रीलावण्यसूरिजी इन दोनों उदाहरणों में 'च' और 'वा' जो, 'वा' की अनुवृत्ति-निवृत्ति तथा प्रवृत्ति और 'वा' की निवृत्ति के लिए प्रयुक्त है, उसको इस न्याय की अनित्यता के ज्ञापक के रूप में स्वीकारते नहीं हैं । जबकि श्रीहेमहंसगणि, इन दोनों को इस न्याय की अनित्यता के ज्ञापक मानते हैं । यदि यह न्याय नित्य ही होता तो, इस प्रकार के ज्ञापक का प्रयोग करने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी, तथापि यदि ज्ञापक रखें, वे व्यर्थ होकर इस न्याय की अनित्यता बताते हैं।
आ. श्रीलावण्यसूरिजी ऐसा मानते हैं कि इस न्याय के अवान्तर न्याय के रूप में दिया गया 'विशेषातिदिष्टो विधिः प्रकृताधिकारं न बाधते' न्याय की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वहाँ मण्डूकप्लुति न्याय से काम चल सकता है। तथापि एक बात विशेष प्रकार से बतानी है कि 'मण्डूकप्लुति' न्याय में, पूर्वसूत्र से अनुवर्तमान पद/शब्द बीच के सूत्र को पूर्णतः छोडकर ही अगले सूत्र में उपस्थित होते हैं । जबकि 'विशेष' और 'अतिदिष्ट' विधि में पूर्व के कुछेक विशिष्ट पदों को लेकर ही सूत्र की प्रवृति होती है, अतः सामान्यतया अनुवृत्त पद की अनुपस्थिति नहीं मानी जाती है, और प्रस्तुत सूत्र के लिए वही पद अनावश्यक होने से वृत्ति में भी नहीं कहा जाता है और जब अगले सूत्र में उसकी आवश्यकता/जरूरत खडी होती है तब वह वहाँ पुनः उपस्थित होता है । यद्यपि 'मण्डूकप्लुति' न्याय से यहाँ काम चल सकता है, तथापि अन्य व्याकरण में यह न्याय, परिभाषा के स्वरूप में उपलब्ध होने से यहाँ भी इसको, इस न्याय के अवान्तर न्याय के रूप में समाविष्ट किया गया है। उदा. 'धातोरिवर्णो'-२/१/५० से आरम्भित, धातोः' पद का अधिकार संयोगात्' -- २/१/५२ तक जाता है, बाद में 'भ्रूश्नोः' २/१/५३ से 'अतिदिष्ट' विधि होने से, वहाँ 'धातोः' का अधिकार प्रवृत्त नहीं होता है। जबकि 'स्त्रियाः' २/१/५४ और 'वाऽम्शसि' २/१/५५ में 'विशेष' विधि
१. शषसे शपसं वा १/३/७ नवाधिकारे वा ग्रहणमुत्तरत्र विकल्पनिवृत्यर्थम् ।
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