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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) स्थित ‘पदे' शब्द को ज्ञापक माना गया है । श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि जैसे 'नृणाम्' में एकपद में स्थित रेफ, षकार और ऋवर्ण से पर आये हुए 'न' का 'ण' होता है, वैसे 'रवण, तक्षण' इत्यादि शब्द में स्यादि प्रत्यय आने के बाद ही 'पदत्व' आयेगा, उसके बाद 'न' का 'ण' हो सकता है, किन्तु यहाँ 'रवण, तक्षण' इत्यादि शब्द में कृत् प्रत्यय 'अनट्' होने के बाद उसमें 'नामत्व' आ जाता है और 'नामत्व' के कारण भविष्य में अवश्य उसी शब्द से "स्यादि' प्रत्यय आने पर 'पदत्व' प्राप्त होगा ही, ऐसा इस न्याय से मानकर 'नाम' अवस्था में ही, उसके 'न' का 'ण' किया जाता है ।
श्रीलावण्यसूरिजी इस ज्ञापक को मान्य नहीं करते हैं । वे कहते हैं कि यहाँ 'पदे' शब्द निमित्त और निमित्ति, दोनों भिन्न भिन्न पद में आने पर 'णत्व' विधि नहीं होती है, ऐसा सूचित करने के लिए है किन्तु निमित्त और निमित्ति, 'स्याद्यन्त' या 'त्याद्यन्त' एक पद में होना चाहिए, ऐसा बताने के लिए 'पदे' शब्द का ग्रहण किया नहीं है, अतः ‘पदे' शब्द ज्ञापक नहीं बन पाता है ।
यहाँ एक और बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि आ. श्रीहेमचंद्रसूरिजी ने 'रघुवर्णान्नो ण एकपदे' -२/३/६३ की बृहद्वृत्ति में बताया है कि 'एकपदे इति किम् ? अग्निर्नयति, नृभिभिः । पद इत्येतावतैकपदे लब्धे एकग्रहणं नियमार्थम्, एकमेव यन्नित्यं तत्र यथा स्यात्, यदनेकं चानेकं च तत्र मा भूत् यथा चर्मनासिकः ।' इससे सिद्ध होता है कि भिन्नपदों की व्यावृत्ति के लिए 'एकपदे' ऐसा संपूर्ण शब्द ही कारणभूत है और नित्य हो ऐसे एकपदत्व के लिए 'एक' शब्द का ग्रहण किया है।
इस न्याय का ज्ञापक 'एकपदे' स्थान में सिर्फ 'पदे' को क्यों माना गया है, इसकी स्पष्टता करते हुए स्वयं श्रीहेमहंसगणि ने बताया है कि पूर्वकालीन न्यायवृत्ति में 'एकपदे इति ज्ञापकम्' कहा है, वह 'रघुवर्णान्नो ण-' २/३/६३ सूत्रस्थित 'एकपदे' को इस प्रकार के सामासिक पद के कारण से ही, समग्र पद को ज्ञापक माना है। जबकि यहाँ वृत्ति में बतायी हुई युक्ति अनुसार केवल 'पदे शब्द को ही ज्ञापक माना गया है । किन्तु श्रीहेमहंसगणि की यह स्पष्टता अपूर्ण प्रतीत होती है।
केवल 'पदे' कहने से भिन्न पदों की व्यावृत्ति हो सकती है और होती भी है, किन्तु समास आदि में 'ऐकार्थ्य' ३/२/७ से 'स्यादि' प्रत्यय का लोप होने पर 'एकपदत्व' आता है, यदि इसमें निमित्त ऋ र, ष पूर्वपद में हो और निमित्ति 'न' उत्तरपद में हो, तो भी 'न' का 'ण' हो सकता है, उसे दूर करने के लिए ही 'एक' शब्द रखा गया है। अतः 'एकपदे' शब्द से सामासिक 'स्याद्यन्त' या उपसर्ग सहित के 'त्याद्यन्त' पद का इस सूत्र में ग्रहण करना नहीं, और इसके साथ-साथ भिन्न पदों की भी व्यावृत्ति हो जाती है।
यहाँ व्यावृत्तिरूप सार्थक्य बताकर 'पदे' शब्द को ज्ञापक नहीं मानने का जो विचार आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने प्रस्तुत किया है, वह उपयुक्त नहीं है क्योंकि 'पदत्व' प्राप्त होने के बाद ही भिन्न पद की व्यावृत्ति या सामासिक पद की व्यावृत्ति का प्रश्न उपस्थित होता है, किन्तु यहाँ 'पदत्व' प्राप्त होने के पूर्व ही ‘णत्व' विधि हो जाती है और ऐसा होने पर 'पदे' शब्द व्यर्थ हो जाता है, अतः इससे ज्ञापित होता है कि भविष्य में होनेवाली पद संज्ञा को भूतवद् मानकर यहाँ 'णत्व' विधि हुई है।
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