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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ९) २९ पाणिनीय परंम्परा में यह न्याय, व्याडि ने 'भूतपूर्वगतिरिह शास्त्रे सम्भवति' शब्दों में दिया है, जबकि अन्य पाणिनीय परिभाषा ग्रन्थों में 'सम्प्रतिकाभावे भूतपूर्वगतिः' शब्दों से निर्दिष्ट है। ॥९॥ भाविनि भूतवदुपचारः ॥ भविष्य में निश्चित रूप से होनेवाला कार्य, वर्तमान में हो ही गया है, ऐसा मानकर अन्य कार्य करना, वह भूतवदुपचार कहलाता है। भविष्य में निश्चित रूपसे होनेवाला स्वरूपान्तर, हो ही गया है ऐसा मानकर अर्थात् 'भूतवद्' उपचार करके भावि अवस्था में होनेवाला कार्य करना । जैसे 'नृणाम्' इत्यादि प्रयोग में 'पद' होने के पश्चात् ही 'रघुवर्णान्नो ण एकपदेऽनन्त्यस्यालचटतवर्गशसान्तरे' २/३/६३ सूत्र से 'न' का 'ण' होता है वैसे, इस न्याय से, 'रवणं, तक्षणं' इत्यादि प्रयोग में यद्यपि 'पदत्व' 'स्यादि' प्रत्यय आने के बाद ही आता है तथापि भविष्य में उत्पन्न होनेवाला 'पदत्व' भूतवद् उपचार से वर्तमान में उत्पन्न हो ही गया है, ऐसा मानकर 'नाम' अवस्था में भी 'रवण, तक्षण' आदि शब्दों में 'न' का 'ण' 'रघुवर्णान्नो ण'-२/३/६३ सूत्र से ही होगा। . इस न्याय का ज्ञापक 'रघुवर्णान्नो ण-'२/३/६३ सूत्र में आया हुआ ‘पदे' शब्द है । उसी 'पदे' शब्द से 'पद' में ही 'णत्व' होता है, ऐसा विधान होने पर भी, जैसे 'नृणाम्' इत्यादि पद स्वरूप प्रयोग में 'रघुवर्णान्नो ण-' २/३/६३ से 'न' का 'ण' होता है वैसे 'रवण, तक्षण' इत्यादि 'पद' न होने पर भी 'न' का 'ण' देखने में आता है । इससे सूचित होता है कि 'नाम' अवस्था में ‘णत्व' करते समय यह न्याय को ध्यान में रखकर ही सूत्र में 'पदे' शब्द रखा गया है। यह न्याय अनित्य/अनैकान्तिक है, अतः ‘अपाठीत्' इत्यादि प्रयोग में, धातु को प्रत्यय निमित्तक अन्य सर्व कार्य करते समय स्वर की वृद्धि भी एक कार्य है, किन्तु उसी कार्य में 'अट्' बाधक होने से सर्व कार्य करने के पश्चात् 'अट्' किया जाता है, अर्थात् अन्त में सर्व कार्य होने के बाद होनेवाले 'अडागम' को 'भूतवद्' न मानकर व्यञ्जनादेवोर्पान्त्यस्यातः' ४/३/४७ से 'पठ्' के 'प' में आये हुए 'अ' की वृद्धि होगी । यदि यह न्याय नित्य होता तो 'अडागम' को 'भूतवद्' मानकर ही 'स्वरादेस्तासु' ४/४/३१ से 'अट्' की वृद्धि होती, किन्तु वह इष्ट नहीं है। यह न्याय भी लोकसिद्ध ही है । उदा. 'ओदनं पचति ।' (वह भात/ओदन पकाता है।) इसी प्रयोग में वस्तुतः ओदन को नहीं पकाया जाता है किन्तु चावल को पकाया जाता है, और वह ही 'ओदन' बनता है । 'ओदन' शब्द केवल पकाये हुए चावल के लिए ही प्रयुक्त है और पकाया हुआ चावल (भात) पुनः पकाया नहीं जाता है। अमरकोश में भी 'ओदन' का अर्थ पकाया हुआ अन्न बताया गया है । [भिस्सा स्त्री भक्त मन्थोऽन्नमोदनोऽस्त्री स दीदिविः।] किन्तु यहाँ चावल (अन्न), भात (ओदन) होनेवाला ही है, उसी भावि अवस्था अभी हो गई है ऐसा मानकर, इस प्रकार का व्यवहार किया जाता है । अतः इस न्याय के लिए किसी भी ज्ञापक की आवश्यकता नहीं है किन्तु यहाँ 'रघुवर्णान्नो ण एकपदेऽनन्त्यस्यालचटतवर्गशसान्तरे' २/३/६३ सूत्र में 'एकपदे' शब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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