SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) इसी प्रकार से 'आदिवद् एकस्मिन्' अंश में भी 'नाम' का ग्रहण करना उपयुक्त नहीं है। यद्यपि श्रीहेमहंसगणि ने स्पष्ट रूप से बताया है कि 'नाम' सम्बन्धी दोनों उदाहरण, न्यासकार की मान्यतानुसार दिये गये हैं, किन्तु सूत्रकार आचार्यश्री के अपने वचन इनके बारे में क्या कहते हैं, इसकी जाँच करनी है । न्यासकार ने जैसे 'गवेन्द्र' में 'इन्द्रे' १/२/३० सूत्र से 'ओ' का 'अव' आदेश किया है, वैसे 'गवेन्द्रयज्ञ' में भी 'सप्तम्या आदिः' ७/४/११४ परिभाषा के आधार पर इन्द्राद्रौ शब्दे परे' इस प्रकार सूत्र का अर्थ करके, 'ओ' का 'अव' आदेश किया है। किन्तु बहुत विचार करने पर आ.श्रीलावण्यसूरिजी का कथन सत्य प्रतीत होता है क्योंकि सिद्धहेमबृहद्वृत्ति में 'इन्द्रे' १/२/ ३०, सूत्र की वृत्ति में स्पष्ट रूप से कहा है कि 'इन्द्रशब्दस्थे स्वरे परे', अत: न्यासकार की व्याख्यानुसार 'इन्द्रादौ शब्दे परे' अर्थ करना उपयुक्त नहीं है और 'सप्तम्या आदिः' ७/४/११४ परिभाषा भी केवल वर्ण सम्बन्धी है, 'नाम' सम्बन्धी नहीं है, क्योकि उस परिभाषा के उदाहरण स्वरूप सूत्र (१) 'इन् ङी स्वरे लुक् १/४/७९ (२) द्वयुक्तोपान्त्यस्य शिति स्वरे ४/३/१४ (३) उत और्विति व्यञ्जनेऽद्वेः ४/३/५९ आदि का विषय भी वर्ण सम्बन्धी ही है और प्रत्येक उदाहरण वर्ण का ही दिया गया है, और 'इन्द्रशब्दस्थे स्वरे परे' कहने से 'इन्द्रयज्ञ' शब्द में भी 'इन्द्र' शब्द सम्बन्धी स्वर होने से 'सप्तम्या आदिः' ७/४/११४ परिभाषा या इस न्याय के बिना ही 'ओ' का 'अव' आदेश सिद्ध हो सकता है। संक्षेप में यह न्याय पूर्णतः वर्ण सम्बन्धी है, किन्तु शब्द सम्बन्धी नहीं है तथा न्यासकार की व्याख्यानुसार नाम सम्बन्धी उदाहरण देना उपयुक्त नहीं है । सूत्रकार आचार्यश्री को यदि इस न्याय में वर्ण के साथ-साथ नाम भी अभिप्रेत होता तो, 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ और सप्तम्या आदिः' ७/४/११४ की बृहद्वृत्ति में कम से कम शब्द सम्बन्धी उदाहरण तो देते ही, किन्तु वैसे उदाहरण की अप्राप्ति से, ऐसा निश्चय करना या अनुमान करना उपयुक्त है और शायद यह अनुमान सत्य के अधिक निकट हो सकता है । पाणिनीय परम्परा में कहीं भी यह न्याय परिभाषा के रूप में बताया नहीं है । चान्द्र, कातन्त्र (दुर्गसिंहकृत वृत्ति और भावमिश्रकृत वृत्ति) कालाप और भोज परम्परा में यह न्याय है, जबकि जैनेन्द्र और शाकटायन में यह न्याय नहीं है। कहीं-कहीं 'व्यपदेशिवद्भाव एकस्मिन्' 'व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिपदिकेन' स्वरूप में यह न्याय प्राप्त होता है। ॥६॥ प्रकृतिवदनुकरणम् ॥ 'अनुकरण' से प्रकृति की तरह कार्य होता है। जिसका अनुकरण होता है, वह 'धातु' इत्यादि को प्रकृति कही जाती है, और जो अनुकरण है, उससे प्रकृति की तरह कार्य होता है। उदा. 'परिव्यवात् क्रियः' ३/३/२७ में धातु के अनुकरण रूप 'क्री' का धातुवद्भाव होने से, धातु सम्बन्धी जो कार्य 'संयोगात्' २/१/५२ से 'ई' का 'इय्' आदेश होता है, वह अनुकरण रूप क्री धातु से भी होता है और प्रकृतिवद् करने से सर्वथा/पूर्णत: Jatir Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy