SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.५) होता है । जैसे 'अत आः स्यादौ जस्भ्याम्ये' १/४/१ से विहित 'स्यादि' प्रत्यय 'नाम' से ही होता है, अतः वहाँ जैसे 'नाम्नः' पद अध्याहार माना गया है, वैसे यहाँ भी 'सर्वादेः' शब्द से 'नाम्नः' और 'षष्ठ्यन्तं' दोनों पद उपस्थित होते हैं, अतः 'सर्वादेः' और 'नाम्नः' दोनों के बीच विशेषणविशेष्यभाव सम्बन्ध स्थापित होता है और 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा से 'सर्वादि' शब्द जिसके अन्तमें आता है ऐसे 'परमसर्व' आदि शब्द से विहित 'डे' प्रत्यय का 'स्मै' आदेश होगा और 'परमसर्वस्मै' आदि रूप होंगे, अतः 'परमसर्वस्मै' मुख्य उदाहरण होगा, जब की इस न्याय के आधार पर 'अन्तवद् एकस्मिन् ' मानकर केवल 'सर्वादि' शब्द से भी, जैसे 'परमसर्वस्मै' में 'स्मै' आदेश होता है, वैसे, 'सर्वस्मै' आदि में भी 'स्मै' आदेश होता है, किन्तु वह न्याय आधारित होने से गौण माना जायेगा, ऐसा आ.श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं । किन्तु दूसरी तरह से तो 'परमसर्वस्मै' रूप भी 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा से निष्पन्न होने से वह भी गौण ही माना जायेगा, मुख्य नहीं । जबकि 'सर्वस्मै' आदि रूप में 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा से निष्पन्न न होने से 'सर्वस्मै' रूप मुख्य बनता है। आ.श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने भी स्वरचित बृहद्वत्ति में मुख्य रूप से 'सर्वस्मै, सर्वस्मात्' रूप ही दिये हैं और गौणतया 'परमसर्वस्मै, परमसर्वस्मात्', रूप दिये हैं। उन्होंने ये रूप सिद्ध करने के लिए परिभाषा का उपयोग बताया नहीं है । यद्यपि न्यासकार ने न्यास में इन रूपो की सिद्धि करते हुए दो विकल्प प्रस्तुत किए हैं - : (१) 'स्याद्याक्षिप्तस्य नाम्नः सर्वादिविशेषणात् विशेषणेन तदन्तविधेर्भावात्' (२) 'न सर्वादिः' १/४/१२ इति निषेधाद् वा' प्रथम विकल्प में ऊपर बताया उसी प्रकार से 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा का उपयोग सूचित होता है । जबकि दूसरा विकल्प कहता है कि द्वन्द्व समास में 'सर्वादि' शब्द को 'सर्वादि' नहीं मानना चाहिए अर्थात् द्वन्द्व समास से भिन्न कर्मधारय आदि समास में आये हए 'सर्वादि' शब्दों को 'सर्वादि' निर्दिष्ट कार्य होते हैं, अतः जैसे 'सर्वस्मै' में '.' का 'स्मै' आदेश होता है वैसे 'परमसर्वस्मै' आदि में भी 'डे' प्रत्यय का ‘स्मै' आदेश होगा । प्रथम विकल्यानुसार 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा का उपयोग करने पर 'सर्वस्मै' रूप की सिद्धि करने के लिए इस न्याय का उपयोग अनिवार्य बन जाता है और परिणामतः 'परमसर्वस्मै' रूप मख्य होगा और 'सर्वस्मै' रूप गौण होगा। ऐसा न करके 'न सर्वादिः' १/४/ १२ सूत्र के आधार पर 'परमसर्वस्मै' रूप सिद्ध करने से आ.श्रीहेमचन्द्रसूरिजी द्वारा निर्दिष्ट उदाहरणों की मुख्यता और गौणता सुसंगत होती है । संक्षेप में 'नाम' के सम्बन्ध में 'अन्तवद्भाव करने की कोई आवश्यकता नहीं है । 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ की बृहद्वृत्ति तथा न्यास में भी 'नाम' सम्बन्धी कोई उदाहरण नहीं है। पाणिनीय व्याकरण में भी इस न्याय का अपवाद स्वरूप 'व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिपदिकेन' न्याय बताया गया है, अतः 'नाम' के विषय में इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है और परिणामतः वहाँ भी 'सर्वस्मै' इत्यादि रूप होने में कोई आपत्ति नहीं आती है; कोई बाधा नहीं आती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy