SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) है । उसमें श्लोक क्र. ९ के बाद, उपजाति छंद कैसे बनता है उसकी समझ/स्पष्टता दी है। वह इस प्रकार है। - पूर्वार्द्ध में अर्थात् दो चरण में भ गण और म गण है, वह विक्रांता छंद है । तृतीय चरण में त गण और य गण है, वह तनुमध्या छंद है और चौथे चरण में सगण, भगण और गुरु अक्षर होता है, वह वितान छंद है। तीनों मिलकर इसी श्लोक में उपजाति छंद बना है । उपर्युक्त तीनों छंद का संकर/समूह यही उपजाति छंद होता है, ऐसा प्राचीन महापुरुषों का कथन हैं, ऐसी बात 'छन्दोनुशासन' में बतायी गई है। बीसवें श्लोक में सावित्री छंद है, उसके प्रत्येक चरण में दो बार म गण आता है। इस प्रकार प्रथम विभाग/वक्षस्कार के प्रारम्भ से लेकर गिनती करने पर, यही १४१ वें न्याय की बृहद्वृत्ति पूर्ण हुई। प्रशस्ति काव्य अर्थात् श्लोक में धातुओं का संग्रह (संसंग्रह) किया गया है । 'संसंगृहीता' शब्द में 'प्रोपोत्संपादपूरणे' ७/४/७८ से सं उपसर्गका द्वित्व हुआ है । उदा. प्रप्रशान्तकषायाग्ने-रूपोपप्लववर्जितम् । १ । उदुज्ज्वलं तपो यस्य, संसंश्रयत तं जिनम् ॥ इत्यादि में प्र, उप, उत् और सं का द्वित्व सिद्ध है। (उपप्लव से रहित, जिसका कषाय स्वरूप अग्नि शांत हुआ है, जिसका उज्जवल तप है, वही जिनेश्वर प्रभु का आप सब आश्रय करें ।) स्वो. न्या. :- श्रीहेमहंसगणि ने इन संग्रह श्लोक में छन्द के अनुरोध से/कारण कहीं कहीं र के संयोग का अल्पप्रयत्नोच्चार्यत्व किया है। उदा. श्लोक क्रमाङ्क उन्नीस में 'ध्र' संयोग का अल्पप्रयत्नोच्चार्यत्व 'उत्' उपसर्ग से युक्त ध्रस् धातु की शंका को दूर करने के लिए है अर्थात् यही अल्पप्रयत्नोच्चार्यत्व से ज्ञापित किया है कि यहाँ उद् उपसर्ग से युक्त ध्रस् धातु नहीं है किन्तु स्वाभाविक उध्रस् धातु है । न्या. त. -: आ. श्रीलावण्यसूरिजी 'न्यायार्थ तरंग' वृत्ति के अन्त में इस न्याय और संपूर्ण 'न्यायसंग्रह' का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि इसी 'न्यायसंग्रह' में प्रायः 'श्री सिद्धहेमशब्दानुशासन' में बताये गये सभी न्यायों का संग्रह किया गया है, तथापि उन सब से अतिरिक्त 'अनेकान्ता अनुबन्धाः, एकान्ता अनुबन्धाः, यथोद्देशं संज्ञापरिभाषम्, कार्यकालं संज्ञापरिभाषम्' इत्यादि तथा 'सकृद्गते स्पर्द्ध यद्बाधितं तद्बाधितमेव' न्याय के अपवाद स्वरूप 'पुनः प्रसङ्गविज्ञानम्' इत्यादि न्यायों की प्रवृत्ति आचार्यश्री ने बृहन्न्यास इत्यादि में की है और इस न्यायों की प्रवृत्ति महाभाष्य में पतंजलि ने बतायी है, किन्तु लक्ष्यानुसार व्यवस्था करने के लिए ही इन्हीं न्यायों का आश्रय किया होने से, यही अन्तिम न्याय में ही उन सब का समावेश हो जाता है, अतः इनके बारे में ज्यादा विवेचन/विश्लेषण नहीं किया है। 'पुनः प्रसङ्गविज्ञानात्' न्याय की व्याख्या/वृत्ति में श्रीनागेश ने ऐसे न्यायों के लक्ष्यानुसारित्व का स्वीकार किया ही है। ***** श्रीहेमहंसगणि ने इसी श्लोक से न्यायसंग्रह की समाप्ति का सूचक मंगल किया है और न्यायार्थमञ्जूषा बृहद्वत्ति के अन्त में अन्तिम मंगल सूचक 'सिद्ध' शब्द रखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy