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________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ४०१ 'त्रप लज्जायाम्', यह धातु घटादि होने से 'णि' होने पर ह्रस्व होता है, अतः 'त्रपयति' रूप होता है । 'जि' परक या 'णम् परक णि' होने पर 'अत्रपि, अत्रापि, त्रपंत्रपं, त्रापंत्रापं' प्रयोग होते हैं । 'त्रपौषि लज्जायाम्' धातु अघटादि है, अत: 'णि' होने पर उपान्त्य 'अ' की वृद्धि होने पर 'त्रापयति' इत्यादि और 'जि' या 'णम् परक णि' होने पर 'अत्रापि, त्रापंत्रापं' प्रयोग ही होते हैं किन्तु 'अत्रपि, त्रपंत्रपं प्रयोग नहीं होते हैं, इतना विशेष है । ॥१५२॥ 'सप समवाये' षोपदेश न होने से 'सन् परक णि' होने पर षत्व न होने से 'सिसापयिषति' रूप ही होता है । 'ऊ परक णि' होने पर 'असीसपत्' रूप होता है, जबकि षोपदेश धातु के 'सिषापयिषति, असीषपत्' इत्यादि रूप होते हैं । ॥१५३॥ 'हेपृङ्गतौ, हेपते' । अद्यतनी में ङपरक 'णि' होने पर 'ऋदित्' होने से 'उपान्त्यस्या'-४/ २/३५ से हुस्व न होने पर 'अजिहेपत्' रूप होता है । ॥१५४॥ 'तुप, तुम्प, तुप, तुन्छ, रिन्फ हिंसायाम्' । 'तुपति' इत्यादि रूप होते हैं । 'तुपती, तुपन्ती स्त्री कुले वा' । यहाँ 'अवर्णादश्नो'-२/१/११५ से 'अत्' का 'अन्त्' आदेश होगा । जबकि भ्वादि गण के 'तुप्' धातु का 'तोपति' इत्यादि रूप होता है और 'इ' तथा 'ङी' होने पर 'शतृ' के 'अत्' का 'श्यशवः' २/१/११६ से नित्य 'अन्त्' आदेश होने पर 'तुपन्ती', ऐसा एक ही रूप होता है। इस प्रकार आगे भी विचार कर लेना । ॥१५५॥ ___तुन्य' इस धातु के 'तुम्पति गौः' । 'प्रस्तुम्पति' इत्यादि प्रयोग होते हैं । 'श' होने पर 'नो व्यञ्जनस्या'-४/२/४५ से प्राप्त 'न' का लोप अन्य वैयाकरण इच्छते नहीं है, अतः 'तुम्पती, तुम्पन्ती स्त्री कुले वा' प्रयोग होता है । भ्वादिगण के 'तुम्प' धातु का 'तुम्पन्ती' एक ही रूप होता है। ॥१५६॥ _ 'तुफ' धातु के 'तुफति' । 'तुफती, तुफन्ती स्त्री कुले वा' प्रयोग होते हैं। जबकि भ्वादि गण के 'तुफ' धातु के 'तोफति' और 'शत्र' होने पर 'तुफन्ती', ऐसा एक ही रूप होता है । ॥१५७॥ - 'तुम्फ' धातु का 'तुम्फति' रूप होता है । कुछेक यहाँ 'श' होने पर 'न' का लोप इच्छते नहीं है, अत: 'तुम्फती, तुम्फन्ती स्त्री कुले वा' प्रयोग होता है । भ्वादि गण के तुम्फ धातु का 'तुम्फन्ती' ऐसा एक ही रूप होता है ॥१५८॥ ___'रिन्फत्' धातु का 'रिम्फति' इत्यादि रूप होते हैं । 'श' होने पर 'न' का लोप नहीं होता है। परोक्षा में 'णव्' होने पर 'रिरिम्फ' इत्यादि रूप होता है। ॥१५९॥ 'तृप, तृन्पत् तृप्तौ' । 'तृपति' इत्यादि रूप होते हैं । ॥१६०॥ स्वो. न्या.-: आचार्यश्री ने 'क्षपि, त्रपि' अर्थात् 'क्षप् लाभण प्रेरणे' और 'त्रपौषि लज्जायाम्' दो धातु को अघटादि माने हैं । 'षप् समवाये' धातु को अन्य वैयाकरण 'अषोपदेश' कहते हैं । 'मेपृङ् रेपृङ्' धातु गत्यर्थक है, वैसे 'हेपृङ्' धातु को भी कौशिक नामक वैयाकरण गत्यर्थक मानते हैं । 'तुप, तुम्प तुफ, तुम्फ' धातु जो हिंसा अर्थ में भ्वादि गण में हैं, वे तुदादि गण में भी हैं, ऐसा अन्य वैयाकरण मानते 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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