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________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ३८९ 'सघट्'-सन् परक 'णि' होने पर, यह धातु षोपदेश न होने से, 'स' अकृत है, अतः 'सिसाघयिषति' में 'ष' नहीं होगा । ऐसे ङपरक 'णि' होने पर 'असीसघत्' इत्यादि रूप होते हैं। यदि धातु षोपदेश होता तो 'सिषाघयिषति, असीषघत्' इत्यादि रूप होते । जबकि 'सनोति' इत्यादि रूप दोनों प्रकार के (षोपदेश और अषोपदेश) धातु से समान ही होते हैं । ॥७३॥ "तिघट्' धातु के 'तिजोति, तितेघ' इत्यादि रूप होते हैं । ॥७४॥ 'चषघट्' धातु के 'चषघ्नोति', परोक्षा में 'आम्' होने पर 'चषघाञ्चकार' रूप होता है । ॥७५।। आठ धातु च अन्तवाले हैं । 'मुचि कल्कने,' कल्कन अर्थात् दंभ, शाठ्यं, क्वथन अर्थात् उबालना । 'मोचते' । ॥७६॥ 'अचूग् अचुग् गतौ' । वर्तमाना-'अचते, अचति' । परोक्षा-'आचे, आच' रूप होते हैं । 'अचिता, अचितुम्' । ऊदित् होने से 'क्त्वा' प्रत्यय के आदि में विकल्प से 'इट्' होकर 'अक्त्वा, अचित्वा' रूप होंगे । जबकि 'अञ्चू गतौ' धातु 'ऊदित्' होने से 'वेट' होगा, अत: 'अङ्क्त्वा , अञ्चित्वा' ऐसे दो प्रकार के शब्द होते हैं । ॥ ७७॥ ___ 'अचुग्' धातु उदित् होने से 'न' का आगम होने पर अञ्चति, अञ्चते' रूप होते हैं । कर्मणि का ‘क्य' होने पर 'न-लोप' न होने पर 'अञ्च्यते' रूप होता है । 'क्त' के आदि में 'इट्' होने पर 'उदञ्चितः' । उदा. 'कुर्वन्नुदञ्चिते नेत्रे' । जबकि 'अञ्चूग्' धातु 'ऊदित्' होने से 'क्त-क्तवतु' होने पर वेट होगा, अत: 'वेटोऽपतः' ४/४/६२ से 'इट्' निषेध होने पर 'अञ्चोऽनर्चायाम्' ४/२/४६ से 'न' का लोप होने पर 'उदक्तः' शब्द होता है । ॥७८॥ 'टुयाग् याञ्चायाम्'। यह धातु ट्वित् होने से 'ट्वितोऽथुः ५/३/८३ से 'अथु' प्रत्यय होने पर 'याचथुः' शब्द होता है । धातु ऋदित् होने से ङपरक 'णि' होने पर उपान्त्यस्वर ह्रस्व न होने पर 'अययाचत्' रूप होगा। जबकि 'याचते' इत्यादि रूप 'टुयाग्' और 'डुयाचूग्" दोनों धातु से सिद्ध होते हैं । ॥७९॥ 'विचूंकी पृथग्भावे' । यह धातु ह्यादि (जुहोत्यादि) है । अतः हवः शिति ४/१/१२ से द्वित्व होकर, वर्तमाना अन्यदर्थक बहुवचन का 'अन्ति' प्रत्यय होने पर 'वेविचति' रूप होता है । अन्य वैयाकरण की मान्यतानुसार 'इष्टिवशात्' अर्थात् अन्य को इष्ट होने से 'निजां शित्येत्' ४/१/५७ से पूर्व का 'ए' होता है । जबकि 'वेवेक्ति' इत्यादि रूप 'विजॅकी' और 'विचूंकी', दोनों धातु के होते हैं । 'णिग्' होने पर 'वेचयति' रूप होता है । धातु ऋदित् होने से 'अङ्' प्रत्यय होकर 'अविचत्' इत्यादि रूप होते हैं। 'विवेचन, विवेकः' इत्यादि शब्द 'विपी पृथग्भावे' धातु से भी होते हैं। ॥८०॥ स्वो. न्या.-: चंद्र नामक वैयाकरण 'मचि कल्कने' धातु के स्थान पर 'मुचि' धातु कहते हैं। 'अञ्च गतौ' धातु के स्थान पर कोई ‘अचूग् गतौ' कहते हैं, तो अन्य 'अचुग्' कहते हैं । ड्वित् 'डुयाचंग याञ्चायाम्' के स्थान पर कुछेक खित् 'टुयाग्' धातु कहते हैं । “विजूंकी पृथग्भावे' धातु को ही कुछेक (सभ्य) चकारान्त मानते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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