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________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ३८७ धातु को हुस्वान्त करने से ही होता है, ऐसा कुछेक कहते हैं । 'रदादमूर्च्छमदः'-४/२/६९ सूत्र की वृत्ति. में 'च' धातु को 'चरति' के समानार्थक बताया है, अतः यहाँ 'भक्षण' और 'गति' अर्थ बताया है । 'क्तक्तवतु' प्रत्ययान्त के विषय में 'चीर्णम्' स्वरूप 'क्त' प्रत्ययान्त का उदाहरण बताया है। न्या. सि. : श्रीलावण्यसूरिजी ने 'कुंग्श्' पाठ किया है। 'पक पालनपूरणयोः' । यह धातु ह्वादि (जुहोत्यादि) है । अतः वर्तमाना अन्यदर्थक द्विवचन का 'तस्' प्रत्यय होने पर हवः शिति' ४/१/१२ से द्वित्व होगा, पूर्व 'पू' के 'ऋ' का 'पृभृमाहाङामिः' ४/१/५८ से 'इ' होने पर और द्वितीय 'पृ' के 'ऋ' का 'ओष्ठ्यादुर्' ४/४/११७ से 'उर' होकर उस के 'उ' का 'भ्वादेर्नामिनो'-२/१/६३ से दीर्घ होने पर 'पिपूर्तः' रूप होगा । 'अन्ति' प्रत्यय होने पर 'पिपुरति' रूप होता है । सप्तमी (विध्यर्थ) का 'यात्' प्रत्यय होने पर 'पिपूर्यात्' रूप होता है, जबकि 'पिपर्ति रूप 'पक्' के साथ साथ 'क्' धातु का भी होता है । ॥६०॥ _ 'हङ्च भये,' इस धातु का कर्तरि प्रयोग 'दीर्यते' होता है। कर्मकर्तरि, भावेप्रयोग और कर्मणि प्रयोग में भी 'दीर्यते' रूप होता है और 'दृ भये' धातु का भी ऐसा रूप होता है । ॥६१॥ ओ अन्तवाला 'ज्योङ् उपनयन-नियम-व्रतादेशेषु' धातु है । उपनयनमौञ्जीबन्ध, यज्ञोपवीत देना । नियम अर्थात् संयम । व्रतादेश अर्थात् संस्कारादेश । 'क्त' प्रत्यय होने पर 'जीतः', यहाँ 'ज्या व्यधः क्ङिति' ४/१/८१ से य्वत् होगा । अन्य वैयाकरण 'व्यञ्जनान्तस्यातोऽख्याध्यः' ४/२/७१ से प्राप्त 'त' का 'न' नहीं इच्छते हैं, और इट् भी नहीं होता है क्योंकि आगमशास्त्र अनित्य है । ॥६२॥ क अन्तवाले पाँच धातु हैं । 'दकु कृच्छ्रजीवने' । 'आङ्' से युक्त इस धातु से 'हि' प्रत्यय होने पर, धातु उदित् होने से 'न' का आगम होगा और [ हि का लोप होने पर] 'आदङ्क' रूप होगा और 'आदङ्क' ऐसा त्याद्यन्तप्रतिरूपक अव्यय भी है। ॥६३ ॥ 'तिकृङ्, टिकृङ् कृङ् गतौ' । 'ङ' परक 'णि' होने पर, धातु ऋदित्' होने से उपान्त्यस्या'४/२/३५ से ह्रस्व नहीं होगा, अतः ‘अतितेकत्' रूप होगा ॥ ६४ ॥ टिकृङ' का 'अटिटेकत्' रूप होगा । ऋदित् न हो ऐसे 'तिकि, टिकि' धातु के अनुक्रम से 'अतीतिकत्, अटीटिकत्' रूप होते हैं । जबकि 'तेकते, टेकते' इत्यादि रूप 'ऋदित्' और 'अनृदित्' दोनों प्रकार के धातु से समान ही होते हैं । ॥६५॥ स्वो. न्या.-: सिद्धहेम के 'पृक्' धातु को कुछेक दीर्घ ऋकारान्त और सेट् मानते हैं । 'दृ भये' धातु को ही कुछेक दिवादि मानते हैं । 'दीक्षि मौण्ड्येज्योपनयनादौ' ऐसे प्राचीन/बृहत्/पाठ का कुछेक दो भाग करते हैं और एक उकार अतिरिक्त कहते हैं । उनकी मान्यतानुसार 'दीक्षि मौण्डये' ऐसा एक धातु और 'ज्यो उपनयनादौ ऐसा दूसरा धातु है । 'ज्योङ् में ङ् आत्मनेपद बताने के लिए है। सिद्धहेम के 'तकु कृच्छ्रजीवने' धातु के स्थान पर अन्य 'दकु' धातु कहते हैं । सिद्धहेम में जो 'तिकीटिकी गत्यचौँ भ्वादि आत्मनेपदी बताये हैं, उसे ही कुछेक 'ऋदित्' कहते हैं । ___'कृ' का 'असिषेकत्' रूप होता है। 'क्' धातु षोपदेश है, अत: 'षः सो'-२/३/९८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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