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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'वाक्यकरणीय धातु इस प्रकार है-: 'चुलुम्प छेदने ' । 'चुलुम्पति' । उणादि के 'कञ्च - कांशुक '-(उणा-५७) सूत्र से कित् 'उक' प्रत्यय होकर निपातन होने पर 'चुलुकः' शब्द होगा' 'किञ्चिच्चुलुम्पति,' 'कीचक'-( उणा-३३) से 'अक' प्रत्यय होकर निपातन होने पर 'किञ्चलकः' शब्द कृमि की एक जाति अर्थ में होता है । लक्ष्य इस प्रकार है।
'निपानं दोलयन्नेष प्रेखोलयति मे मनः । पवनो वीजयन्नाशा, ममाशामुच्चुलुम्पति ॥१॥
(जलाशय को तरंगित करता हुआ यह पवन मेरे मन को चक्कर चक्कर भमाता है। आशादिशाओं को आवाज़ से भरनेवाला (यह) पवन मेरी आशा को निर्मूल कर रहा है।)
'कूच उद्भेदने' । 'कूचति' । 'नाम्नि पुंसि च' ५/३/१२१ सूत्र से ‘णक' प्रत्यय होने पर 'कूचिका' शब्द 'चित्रकरलेखनी'/ पीछी अर्थ में और कूञ्चिका अर्थात् चाबी अर्थ में होता है। ॥२॥
३ धटण् बन्धने,' 'निर्धाटयति' । 'णक' प्रत्यय होने पर 'धाटकः' । 'णिच्' अनित्य होने से उसके अभाव में 'अच्' प्रत्यय होकर 'धट:' शब्द तुला/ तराजू अर्थ में होता है ॥३॥
___" उल्लुडण् उट्टीकने'। यह धातु अकारान्त है। उदा.'माघ' काव्य में तावत् खरः प्रखरमुल्लुडयाञ्चकार (तब तक गर्दभ उत्कृष्टतया लोटता रहा ) यहाँ 'अ' का लुक् हुआ है, उसका स्थानिवद्भाव होने पर उपान्त्य उ का गुण नहीं होता है । ॥४॥
'अवधीरण अवज्ञायाम्' । अनादर करना, "तन्न धर्ममवधीरय धीर !" (हे धीर ! तूं धर्मका अनादर मत कर ।) अद्यतनी में 'ङ' प्रत्यय होने पर 'आववधीरत्' रूप होगा ॥५॥
"उद्धषत्, उल्लकसत् उच्छसने' । इसमें प्रथम धातु कुटादि गण में है । 'उद्धृषति, उल्लसति अङ्गमनेन' । 'उद्भुषणं , उल्लकसनं च रोमाञ्चः' । रोमांच होना । 'उद्धष्' धातु कुटादि होने से 'अनट्' प्रत्यय 'ङित्' होता है, अत: 'उ' का गुण नहीं होता है ॥ ६/७॥
___ यहाँ कुछेक लौकिक धातु, वाक्यकरणीय धातुओं में पाये जाते हैं और ग्रन्थभेद से उनमें बताये हुए कुछेक लौकिक धातुओ में भी पाये जाते हैं, अतः ये लौकिक धातु हैं और ये न्या. सि. १. क्रियावाचित्वे सति पाठाऽपठितत्वे सति, सूत्रागृहीतत्वे सति शिष्टप्रयोगप्रयोज्यविषयत्वं
वाक्यकरणीयत्वम्। (धातुपाठ- पृ.३००) २. चुलुकः अर्थात् अंजलि/करकोश । ३. श्रीलावण्यसूरिजी ने 'धटण' के स्थान पर 'घटण्'धातु दिया है और रूप भी उसीके
अनुसार दिये हैं। ४. संपूर्ण श्लोक इस प्रकार है।
अग्रे क्रमेलकसमागमभीतभीतस्तावत् खरः प्रखरमुल्लुलयाञ्चकार । यावच्चलासनविलोलनितम्बबिम्ब-वित्रस्तवस्त्रमवरोधवधूः पपात ॥ (शिशुपालवध, माध) ड और ल को एक ही मान कर श्रीलावण्यसुरिजी ने 'उल्लयति' और श्लोक में 'उल्लयाञ्चकार' प्रयोग दिये हैं।
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