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________________ चतुर्थ वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १४१ ) धातुओं को धातुपाठ में नहीं बताये हैं । उसमें प्रथम 'क्लवि' धातु को छोड़कर अन्य लौकिक धातु अकारान्त हैं । 'क्लवि वैक्लव्यं' । 'विक्लवते' । ' 'अच्' प्रत्यय होने 'विक्लवः' । लक्ष्य इस प्रकार है-: मिलन्त्याशासु जीमूता विक्लवन्ते दिवि ग्रहाः [ ] ( दिशाओं में बादल प्राप्त होते हैं, अतः आकाश में ग्रह छाया / प्रभाव रहित होते हैं ) 'विक्लवन्ते' का अर्थ 'विच्छायीभवन्ति' (छायारहित होता है ) ऐसा होता है ॥ १ ॥ 'वीजण् व्यजने', कर्तरि ह्यस्तनी - ' अवीजयत्' । "राजहंसैरवीज्यन्त" कर्मणि ह्यस्तनी । यह धातु अकारान्त होने से ङपरक 'णि' प्रत्यय होने पर 'अतः ' ४/३/८२ से 'अ' का लोप होने से धातु समानलोपि माना जाता है । अतः 'उपान्त्यस्या' - ४ / २ / ३५ से उपान्त्य का ह्रस्व नहीं होता है और 'अविवीजत्' रूप होता है । 'वि' उपसर्ग से युक्त 'ईज्' धातु से 'णि' प्रत्यय होने पर 'व्यैजयत्' रूप कर्तरि ह्यस्तनी तथा 'व्यैजयन्त' ( कर्मणि ह्यस्तनी) 'व्यैजिजद्' (प्रेरक कर्तरि ह्यस्तनी) इत्यादि रूप होते हैं ॥२॥ ३७५ ‘हीलण् निन्दायाम्' । हीलयति । 'ङपरक 'णि' होने पर, पूर्व की तरह उपान्त्य ह्रस्व का अभाव होता है, अत: 'अजिहीलत्' होता है । 'क्त' प्रत्यय होने पर ' हीलितः ' । 'णिच्' अनित्य है, अतः उसके अभाव में 'क्टो गुरो: '-५/३/१०६ से 'अ' प्रत्यय होकर 'हीला' । 'णिवेत्त्यास '-५ / ३ / १११ से 'अन' प्रत्यय होकर 'होलना' | ||३|| 'अन्दोलण, हिन्दोलण्, प्रेङ्खोलण् दोलने ।' दोलन अर्थात् उत्क्षेप (हींचना ) ' अन्दोलयति' । ङपरक 'णि' होने पर 'स्वरादेर्द्वितीयः ' ४/१/४ से द्वितीय अंश का द्वित्व होगा उसमें 'न बदनं-' ४/ १/५ से 'न' के द्वित्व का निषेध होगा और धातु अकारान्त होने से उपान्त्यस्या' - ४ / २ / ३५ से उपान्त्य का ह्रस्व नहीं होगा, अतः 'आन्दुदोलत्' रूप होगा | ||४|| 'हिन्दोलण्' धातु के वर्तमानकाल में 'हिन्दोलयति' और अद्यतनी में 'अजिहिन्दोलत्' रूप होगा । ॥५॥ 'प्रेङ्खोलण्' धातु के भी 'प्रेङ्खोलयति' और ङ परक 'णि' होने पर 'अपिप्रेङ्खोलत्' रूप होता है ॥६॥ 'रूषण् रुक्षणव्याप्त्योः' । 'रूषयति' । उदा. 'अटन् रुषयति भुवम् ।' (घुमता हुआ वह पृथ्वी पर व्याप्त हो जाता है, 'फैलता है ) । पृषोदरादि होने से 'आटरूषकः ' शब्द का निपातन होता है । ङ. परक 'णि' होने पर हूस्व के अभाव में 'अरुरूषत्' रूप होता है । लक्ष्य इस प्रकार है-: 'करीव सोऽन्तर्गिरि रेणुरूषितः ।" [ ] ( पर्वत के अन्दर रेणु से आच्छादित हस्ति जैसा वह ) इत्यादि ॥७॥ न्या.सि. १. श्रीलावण्यसूरिजी ने 'रेणुरूषितः' प्रयोग का उदाहरण इस प्रकार दिया है । परिभ्रमन् लोहितचन्दनोचितः, पदातिरन्तर्गिरिरेणुरूषितः । महारथः सत्यधनस्य मानसं दुनोति नो कच्चिदयं वृकोदरः ॥ (किरात. स. ३) इति भारविः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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