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५/२/३७ से आलु प्रत्यय होने पर 'गृहयालुः ' शब्द सिद्ध होता है ॥ ५ ॥
स्वो . न्या. -: अब सौत्रादि धातु निष्पन्न हुए 'नाम' में से कुछेक के व्युत्पत्ति स्वरूप अर्थसूचक विग्रह वाक्य, दिग्दर्शन करने के लिए बताये जाते हैं । उसी तरह जिन अर्थसूचक शब्द / नाम के विग्रहवाक्य न बताये हों वे बना लेने। उदा. 'अगमर्थाद् विन्ध्यं स्तभ्नाति इति अगस्त्यः | 'अगं' अर्थात् 'विन्ध्य' को स्तम्भित करनेवाले, 'अगस्त्यः' |
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण )
'तन्द्राणशीलः' अथवा 'तन्द्राणधर्मा' अथवा 'साधु तन्द्राति' अर्थ में 'तन्द्रालुः' शब्द होता है । ऐसे 'पतयालुः गृहयालुः' शब्दों के विग्रहवाक्य बना लेना ।
'कयति जानाति शिक्षितः सन् नृत्याद्यमिति कीशः ।'
न्या. सि. : 'पुलं स्तभ्नाति इति पुलस्त्यः ।'
'चिरिट् हिंसायाम्' धातु के 'चिरिणोति' इत्यादि रूप होते हैं और 'उणादि' के 'चिरेरिटोभूव' उणा - १४९ ) सूत्र से 'इट' प्रत्यय होने पर, अन्त्य 'इ' का 'भ' आदेश होता है और 'जातेरयान्त' २/४/५४ से 'ङी' प्रत्यय होने पर 'चिभिटी' शब्द बनता है और 'टिण्टश्चर् च वा' (उणा - १५० ) से 'टित् इण्ट' प्रत्यय होने पर 'चिरि' धातु का 'चर्' आदेश विकल्प से होने पर 'चरिण्टी' और 'चिरिण्टी शब्द होते हैं और उसका अर्थ वधूटी ( वधू ) होता है ॥६॥
उकारान्त दो धातु हैं । १. 'जुं वेगे' का 'जवति' रूप होता है और अनुस्वार की 'इत्' संज्ञा होने से अद्यतनी में 'इट्' नहीं होगा और 'अजौषीत् रूप होगा। जबकि 'जुंङ् गतौ' धातु के 'जवते, अजोष्ट' इत्यादि रूप होते हैं । 'जवः जवनः' इत्यादि शब्द की सिद्धि, यद्यपि निघण्टुवृत्ति इत्यादि में सौत्र 'जु' धातु से प्रत्यय करके बतायी है, तथापि जुंङ् गतौ ' धातु से भी इसकी सिद्धि होती है ॥ ७ ॥
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२. 'क्रुङ्गतौ' धातु के 'क्रवते' (कर्तरि ) 'क्रूयते' (कर्मणि) और ' क्रव्यम्' (कृदन्त ) इत्यादि रूप होते हैं ॥ ८ ॥
कारान्त 'भूङ् प्राप्तौ ' धातु से 'भूङ : प्राप्तौ णिङ् ' ३/४/१९ से 'भावयते' और 'भवते' रूप होते हैं ॥ ९ ॥
ककारान्त छः धातु हैं । १. 'तर्क विचारे' धातु का 'तर्कति' रूप होता है। अकार श्रुतिसुख या उच्चारण के लिए है । ( इस प्रकार आगे भी अकारान्त धातु को अकारान्त नहीं मानने चाहिए ) ॥ १० ॥
२. 'कक्क, कर्क हासे,' धातु का 'कक्कति' रूप और 'कक्तिः ' शब्द सिद्ध होता है । 'क्तेटो गुरोर्व्यञ्जनात्' ५ / ३ / १०६ सूत्र से 'अ' प्रत्यय होने पर 'कक्का' और 'अच्' प्रत्यय होने पर 'कक्कः '
१. समाः स्नुपाजनीवध्व चिरिण्टी तु सुवासिनी ( अमरकोश, पं. १०९१)
२. न्या. सि. - पाणिनीय व्याकरण में इस धातु का पाठ नहीं किया गया है। केवल उसे सौत्र धातु के रूप में माना गया है। अतः उनकी मान्यतानुसार यहाँ इस धातु को बताया है 'जुचङ्क्रम्य-' ( पा. ३ / २ / ५०) सूत्र में भट्टोजी दीक्षित ने कहा है कि 'जूं इति सौत्रो धातुर्गतौ वेगे च'
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