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________________ ૨૭ तृतीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १३९ ) स्कन्दो वीप्साऽऽभीक्ष्ये' ५/४/८१ से 'णम् ' प्रत्यय हुआ है । ये सब प्रयोग शब्द की विभिन्न विचित्र शक्तिओं का द्योतन करते हैं । पाणिनीय व्याकरण में 'स्त्रियां' (पा.स्. ४ / १ / ३ ) सूत्र के महाभाष्य में, इसके बारे में विचार किया गया है । किन्तु परिभाषा न्याय के स्वरूप में इसे अन्य किसीने नहीं बताया है । * ॥ १३९ ॥ किं हि वचनान्न भवति ॥ १७ ॥ 'वचन्' से क्या सिद्ध नहीं होता है ? अर्थात् सर्व सिद्ध हो सकता है । 'वचन्' अर्थात् इष्ट अर्थ को बतानेवाला शब्दप्रयोग । यही शब्दप्रयोगस्वरूप 'वचन' से क्या सिद्ध नहीं होता है ? अर्थात् सब कुछ सिद्ध हो सकता है । इष्ट अर्थ का ज्ञान होने पर शिष्टप्रयोगनुसार, कुछेक विधियाँ अप्राप्त होने पर भी होती है जबकि कुछेक विधियाँ प्राप्त होने पर भी नहीं होती है । इष्टार्थ के बोध का अभाव हो तो, कुछेक विधियाँ प्राप्त होने पर भी उसकी प्रवृत्ति नहीं होती है । ३५३ 'समर्थः पदविधि:' ७/४/१२२ के अपवाद स्वरूप यह न्याय है । उसमें अप्राप्त की प्रवृत्ति इस प्रकार है । उदा. 'सूर्यमपि न पश्यन्ति इति असूर्यपश्या राजदाराः ' । यहाँ 'असूर्योग्रादृशः ' ५ / १/१२६ से ‘खश्' प्रत्यय होता है और 'वत्सेभ्यो न हितो अवत्सीयो गोधुक्' में 'तस्मै हिते' ७/ १ / ३५ से 'ईय' प्रत्यय होता है । इन दोनों प्रयोग में 'नञ्' का अनुक्रम से 'दृश्' और 'हित' के साथ सम्बन्ध है किन्तु 'सूर्य' और 'वत्स' के साथ सम्बन्ध नहीं है, अतः 'असूर्यंपश्या' में 'असूर्यं ' और 'अवत्सीयो' में 'अवत्स' समास नहीं हो सकता है क्योंकि सामर्थ्य का अभाव है, तथापि शास्त्रकार के 'असूर्योग्राद् दृश: ५/१/१२६ स्वरूप वचन से तथा 'अवत्सीयो गोधुक्' उदाहरण से 'समर्थः पदविधि:' ७/४/ १२२ से समास का अभाव सिद्ध होने पर भी, उसका बाध करके, इस न्याय से सामर्थ्य का अभाव होने पर भी समास किया गया है । प्राप्त की अप्रवृत्ति इस प्रकार है । उदा. नहाहोर्धतौ' २/१/८५ यहाँ धातु से 'इ, कि' या 'शितव्' किया नहीं है । इष्टार्थ का प्रत्यय अर्थात् अभिधा न होती हो तो प्राप्तकार्य की भी अप्रवृत्ति होती है । वह इस प्रकार-: 'सङ्घस्य भद्रं भूयात्' । यहाँ 'सङ्घभद्रं समास (षष्ठी तत्पुरुष ) नहीं होगा क्योंकि 'सङ्घभद्रं भूयात्' कहने से, 'सङ्घस्य भद्रं भूयात्' अर्थ की प्रतीति नहीं होती है किन्तु सङ्घभद्र नामक या 'सङ्घ' के सम्बन्धी स्वरूप, कुछ भद्र, किसीका हो ऐसी प्रतीति होती है । यह न्याय इष्टार्थप्रत्यायनमूलक है । 'अभिधानलक्षणाः कृत्तद्धितसमासाः ' न्याय का ही अनुवाद है । 'अभिधान' अर्थात् इष्टार्थ प्रत्यायन, वही अभिधान लक्षण (चिह्न) युक्त, 'कृत्, तद्धित' और 'समास' है । अतः जहाँ वही प्रत्यय या समास करने से इष्टार्थ का अभिधान न होता हो तो वही प्रत्यय या समास की वहाँ प्राप्ति होने पर भी, होता नहीं है । इस न्याय का अन्य / दूसरा अर्थ बताते हुए श्रीमहंसगणि कहते हैं कि 'वचनाद्' अर्थात् सूत्रोक्त विधान के सामार्थ्य से अप्राप्त की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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