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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) में (गाय, बैल) होता है, अत: बिना 'अयं, इयम्' विशेषण, स्त्रीत्व या पुंस्त्व की प्रतीति नहीं होती है।
(२) अन्य विशेषण स्वरूप पद की अपेक्षा बिना ही शब्द के लिङ्ग का ज्ञान हो सकता है। वह तीन प्रकार से है- (१) नाम मात्र से/केवल नाम से (२) आदेश से (३) प्रत्यय से (१) इसमें केवल नाम से इस प्रकार है । उदा. 'माता-पिता' । यहाँ केवल नाम से स्त्रीत्व और पुंस्त्व का बोध हो सकता है । (२) आदेश से इस प्रकार है -'तिस्रः' यहाँ बिना स्त्रीत्व 'त्रि' का 'तिसृ' आदेश नहीं हो सकता है, अत: 'तिसृ' आदेश से स्त्रीत्व का बोध हो सकता है । उसी तरह 'क्रोष्टा' । यहाँ पुंस्त्व द्वारा उत्पन्न 'क्रुश्' सम्बन्धित 'तुन्' के 'तृच' आदेश से पुंस्त्व का बोध होता है । (३) प्रत्यय से इस प्रकार है - : 'राजी' यहाँ स्त्रीत्व के कारण उत्पन्न 'डी' प्रत्यय से स्त्रीत्व का बोध होता है। 'गोचर' इत्यादि में पुल्लिङ्ग नामत्व के कारण 'पुंनाम्नि घः' ५/३/१३० सूत्र के बाद आये हुए 'गोचरसंचर'- ५/३/१३१ सूत्र से उत्पन्न 'घ' प्रत्यय से पुंस्त्व का बोध होता है।
संख्या का वैचित्र्य इस प्रकार है - उदा. 'अं अः - क )( प शषसाः शिट्' १/१/१६, यहाँ संज्ञी बहुवचन में होने पर भी संज्ञा एकवचन में ही है और 'दाराः सुमनसः, अप्सरसः' इत्यादि प्रयोग में अर्थ एकवचन में होने पर भी, उसका बहुवचन में प्रयोग होता है।
___ शब्दशक्ति के कारण एक ही पदार्थ के लिए प्रयुक्त भिन्न-भिन्न शब्द को भिन्न-भिन्न लिङ्ग होते हैं । उदा. 'सर्व वस्तु, सर्वः पदार्थः, सर्वा व्यक्तिः' या 'दार, कलत्र, पत्नी' तीनों शब्द पत्नीवाचक होने पर भी, तीनों के लिङ्ग भिन्न भिन्न हैं। 'दार' शब्द पुल्लिङ्ग में, 'कलत्र' नपुंसकलिङ्ग में और पत्नी' शब्द स्त्रीलिङ्ग में है अर्थात् लिङ्ग पदार्थ के आधार पर नहीं रखा जाता है किन्तु शब्द के आधार पर रखा जाता हैं।
कुछेक शब्द एकत्व अर्थ में होने पर भी बहुवचन में ही प्रयुक्त होते हैं । उदा. 'दार, अप्सरस सुमनस्' । इन शब्दों से सदैव बहुवचन ही होता है । जबकि कुछेक शब्द बहुत्वविशिष्ट होने पर भी एकवचन में भी उनका प्रयोग होता है । उदा. 'वनम्, समूहः, अक्षतम्, विंशतिः ।'
क्वचित्, कुछ अर्थ बिना शब्दप्रयोग प्रतीत नहीं होता है। उदा. 'हस्तेनातिक्रामति' अर्थ में 'हस्त' शब्द से 'णिज् बहुलं नाम्नः'-३/४/४२ से 'णिच्' होने पर 'अतिहस्तयति' प्रयोग होगा । यहाँ 'अतिक्रम' अर्थ बिना 'अति' के प्रयोग प्रतीत नहीं होता है, अतः 'हस्तयति' के स्थान पर अतिहस्तयति' प्रयोग करना पड़ेगा । जबकि 'श्वेताश्वेनातिक्रामति' अर्थ में 'श्वेताश्व' शब्द से णिच् होने पर 'श्वेताश्वाऽश्वतरगालोडिताऽऽह्वरकस्याश्वतरेतक लुक्' ३/४/४५ से 'अश्व' शब्द का लोप होने पर 'श्वेतयति' प्रयोग होगा। इस प्रयोग में 'अति' के प्रयोग बिना ही 'अतिक्रम' अर्थ का बोध होता है।
और 'खाम्' प्रत्यय जैसे 'आभीक्ष्ण्य' अर्थ में होता है, वैसे ‘णम्' प्रत्यय भी 'आभीक्ष्ण्य' अर्थ में होता है, तथापि जहाँ 'खणम्' प्रत्यय होता है वहाँ 'आभीक्ष्ण्य' बताने के लिए द्वित्व होता है। उदा. 'भोजं भोजं याति', किन्तु ‘णम्' प्रत्ययान्त शब्द का 'आभीक्ष्ण्य' बताने के लिए द्वित्व नहीं होता है। उदा. 'गेहमनुप्रवेशमास्ते' । यहाँ 'गेहमनुप्रविश्यानुप्रविश्यास्ते' अर्थ में 'विश-पत-पद
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