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________________ ३४८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ॥१३६॥ क्विबर्थं प्रकृतिरेवाह ॥१४॥ 'प्रकृति' स्वयं 'क्विप्' के अर्थ को कहती है । उदा. 'त्वां मां च आचक्षाणे' अर्थ में 'युष्मद्' और 'अस्मद्' से 'णिच्' और 'क्विप्' प्रत्यय होकर, उन दोनों का लोप होने पर और 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ से 'अद्' का भी लोप हुआ है, अत: 'युष्म्' और 'अस्म्' ऐसे मकारान्त शब्द से 'ङि' प्रत्यय होगा, तब 'टाङ्योसि-' २/१/७ से 'म्' का 'य' होने की प्राप्ति है, उसका बाध करके 'त्व-म' आदेश पर होने से त्व-म' आदेश करके उसी 'त्व-म' के अन्त्य 'अ' का 'य' आदेश होने की प्राप्ति है, तथापि 'सकृद्गते स्पर्द्ध'- ' न्याय से 'यत्व' का एक बार बाध हो जाने से, उसकी पुनः प्रवृत्ति नहीं होगी और त्व-म' आदेश 'णिच्' क्विबन्त' होने से उसमें सर्वादित्व नहीं है, अत: 'ङि' का 'स्मिन्' आदेश न होकर त्वे-मे' रूप सिद्ध होंगे । ये रूप बिना प्रस्तुत न्याय ही सिद्ध होते हैं। जब इस न्याय का उपयोग करेंगे तब 'त्व-म' के सर्वादित्व के कारण 'स्मिन्' आदेश होने पर त्वस्मिन्-मस्मिन्' रूप भी होंगे, वह इस प्रकार-: इस न्याय का भावार्थ यह है कि 'क्विबन्त युष्मद्- अस्मद्' के अर्थ को 'क्विप्रहित युष्मद्-अस्मद्' स्वरूप प्रकृति ही कह सकती है क्योंकि बिना प्रकृति क्विप नहीं होता है। अंकुशरहित हाथी की तरह, अंकुशयुक्त हाथी भी हाथी ही कहलाता है क्योंकि बिना हाथी अंकश का संभव ही नहीं है। उसी प्रकार केवल 'यष्मद- अस्मद' की तरह 'णिच् क्विबन्त युष्मद्- अस्मद्' शब्द भी वैसे माने जाते हैं, किन्तु भिन्न नहीं माने जाते हैं, इस प्रकार 'णिच् क्विबन्त युष्मद्-अस्मद्' में भी 'सर्वादित्व' माना जा सकता है। यहाँ ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि 'णिच् क्विबन्त युष्मद्-अस्मद्' और केवल 'युस्मद्अस्मद्', दोनों में शब्दभेद और अर्थभेद होने से ऐसी विवक्षा करना उचित नहीं है क्योंकि 'सिद्धिः स्याद्वादात्' १/१/२ सूत्र से अभिन्न पदार्थों के लिए भेदविवक्षा और भिन्न पदार्थों में अभेदविवक्षा करने की अनुमति दी गई है । उदा. 'पीयमानं मधु मदयति' प्रयोग में 'मधु' में अभेद होने पर भी, उसमें भेद विवक्षा करके, 'कर्मत्व' और 'कर्तृत्व' लाया जा सकता है । उसी प्रकार से यहाँ भी भेद होने पर भी अभेद की विवक्षा है। अत: केवल 'युष्मद्-अस्मद्' की तरह 'णिच्क्विबन्त युष्मद्अस्मद्' में सर्वादित्व की विवक्षा करके 'त्व-म' आदेश से पर आये हुए 'ङि' प्रत्यय का 'स्मिन्' आदेश करके 'त्वस्मिन्-मस्मिन्' रूप सिद्ध हो सकते हैं। इस प्रकार 'णिच् क्विबन्त युष्मद्-अस्मद्' में और केवल 'युष्मद्-अस्मद्' शब्द में शब्दभेद तथा अर्थभेद के कारण अप्राप्त 'सर्वादित्व' की प्राप्ति कराने के लिए यह न्याय है, ऐसी श्रीहेमहंसगणि की मान्यता है। इस न्याय का अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है । सामान्यतया 'प्रकृति' और 'प्रत्यय' दोनों साथ में मिलकर अर्थ कहते हैं । यही व्यवस्था जहाँ प्रकृति और प्रत्यय दोनों श्रूयमाण हो वहाँ जानना, किन्तु जहाँ 'प्रत्यय' का लोप हुआ हो वहाँ, उसकी मूल प्रकृति ही प्रत्यय का अर्थ भी कह देती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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