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________________ तृतीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १३५ ) ३४७ 'कटं करोति भीष्ममुदारं दर्शनीयम्' उदाहरण में 'सामानाधिकरण्य' के लिए द्वितीया विभक्ति होगी, ऐसा श्रीमहंसगणि कहते हैं इसमें श्रीलावण्यसूरिजी सम्मत नहीं हैं । वे कहते है कि 'सामानाधिकरण्य' द्वितीया की उत्पत्ति का कारण बनता है किन्तु विभक्ति की उत्पत्ति का कारण नहीं बनता है और विभक्त्युत्पत्ति में यही न्याय ही कारणस्वरूप है और प्रथमा विभक्ति की उत्पत्ति द्वारा भी इस न्याय के उदाहरण की सिद्धि हो सकती है, अतः द्वितीयोत्पत्ति की चर्चा उपयुक्त नहीं है । और दूसरा दृष्टान्त जो बताया कि राजा के मित्र निर्धन होने पर भी, राजा के धन से धनवान् माने जाते हैं और वही धन का उपयोग भी कर सकते हैं, वही दृष्टांत भी द्वितीयोत्पत्ति के कारण को बताता है, अतः इस न्याय में वह उपयुक्त नहीं है । यद्यपि इस न्याय से प्रथमा विभक्ति ही आ सकती है, ऐसा श्रीहेमहंसगणि स्वयं प्रतिपादन करके, इस न्याय की अन्य व्याख्या करते हैं कि 'क्रियारहिता प्रकृतिर्न प्रयोज्या' किन्तु श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यह व्याख्या शास्त्र के अधिकार में नहीं आ सकती है क्योंकि केवल पद- संस्कार ही व्याकरण के अधिकार में है । यहाँ 'प्रकृति' और 'प्रत्यय' दोनों साथ में ही रहते हैं । प्रकृति क्रियारहित हो तो वाक्य की सिद्धि नहीं हो सकती है । यह बात उपयुक्त है, किन्तु क्रियाराहित्य हो वहाँ पदत्व होता नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। इसी कारण से द्रव्य, गुण, कर्म आदि में भिन्न भिन्न कर्मत्व आता है और द्वितीया विभक्ति होती है, ऐसा कहना, इस न्याय के अनुसार उपयुक्त / उचित नहीं है । इस न्याय का अर्थ केवल इतना ही है कि अकेली प्रकृति का प्रयोग कदापि नहीं होता है । इस न्याय से दो प्रकार का नियम होता है । (१) केवल प्रकृति का प्रयोग कदापि नहीं होता है, वैसे (२) केवल 'प्रत्यय' का भी प्रयोग कदापि नहीं होता है। और 'नाम' मात्र की विवक्षा में प्रत्येक 'नाम' से प्रथमा विभक्ति होती है और केवल धात्वर्थ की विवक्षा में ( प्रथम ) तृतीय पुरुष होता है । 'कटं कुरु भीष्ममुदारं दर्शनीयम्' में ' अनिभिहिते' (पा.स्. २ / ३ / १) सूत्र में कर्मत्व की प्राप्ति बताकर द्वितीया सिद्ध नहीं की है किन्तु 'कर्मत्व' के साथ 'सामानाधिकरण्य' पूर्वक द्वितीया की है और इस प्रकार इस उदाहरण में इस न्याय के प्रयोग का अभाव दिखायी पडता है तथापि शास्त्रकार आचार्यश्री ने 'कर्मणि' २/२/४० सूत्र की बृहद्वृत्ति में 'कटं करोति भीष्ममुदारं दर्शनीयम्' उदाहरण की समझ देते हुए इस न्याय का उल्लेख किया है । अत एव श्रीहेमहंसगणि ने इसी प्रयोग को इस न्याय के उदाहरण स्वरूप दिया है, ऐसा लगता है । 'अपदं न प्रयुञ्जीत' के अर्थ के अनुवाद स्वरूप ही यह न्याय है । यह न्याय भी अन्य किसी परिभाषासंग्रह में नहीं है । १. ‘तिव् तस् अन्ति' को पाणिनीय परम्परा में प्रथम पुरुष कहते हैं, जबकि गुजराती व्याकरण अनुसार तृतीय पुरुष कहते हैं। यद्यपि सिद्धम में अन्यदर्थ में ही ये प्रत्यय बताये गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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