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________________ तृतीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १३४) ३४५ 'यत्व' आदि सन्धिकार्य नहीं होता है, अतः 'यत्व' आदि कार्य का अभाव ही हुस्व करने का फल है, ऐसा सूत्र की वृत्ति में स्वयं शास्त्रकार आचार्यश्री ने बताया है । यही बात सत्य है किन्तु यही फल कालान्तर भावि है । तत्कालीन/समकालीन फलस्वरूप कोई भी फल नहीं है । अत एव 'पर्जन्यवत्' उपमान सार्थक ही है क्योंकि पूर्ण सरोवर/तालाब में बारिश गिरने का तत्कालीन कोई फल नहीं होता है किन्तु कालान्तर में औषधी (धान्यादि) की निष्पत्ति और रसाधिक्य आदि रूप फल तो होता ही है। यह न्याय अनित्य है, अतः 'समानानां तेन दीर्घः' १/२/१ सूत्र में 'समान' शब्द का व्याप्ति की सिद्धि के लिए बहुवचन में प्रयोग किया है । वह इस प्रकार -: 'क्ल + ऋषभः, होतृ+लकारः' इत्यादि प्रयोग में 'लु' और 'ऋ' का 'ऋतृति इस्वो वा' १/२/२ से हुस्व होने की प्राप्ति है किन्तु 'ऋस्तयोः' १/२/५ सूत्र पर होने से हस्व का बाध होकर, उसी सूत्र से ऋ ही होगा किन्तु शास्त्रकार को यहाँ ह्रस्व भी इष्ट है, अतः "जितने 'समान' है, उन सब का, इसके बाद में 'ऋ' या 'लु' आया हो तो हुस्व हो ही जाता है।" ऐसी व्याप्ति की सिद्धि के लिए 'समानानां'-१/२/१ मूत्र में बहुवचन रखा है। यदि यह न्याय नित्य होता तो, 'ऋत्व' की तरह इस्व भी होता ही, तो इसके लिए शास्त्रकार बहुवचन का प्रयोग क्यों करे ? अर्थात् न करें तथापि बहुवचन का प्रयोग किया वह इस न्याय की अनित्यता के कारण से 'इस्वत्व' निर्बल बनता है और उसका, परत्व से बलवान हुए 'ऋस्तयोः' १/ २/५ सूत्र की प्रवृत्ति से बाध होगा, ऐसी संभावना के कारण बहुवचन का प्रयोग किया है। श्रीलावण्यसूरिजी इस न्याय की अनित्यता का स्वीकार नहीं करते हैं । उनके मत से 'समानानां' में बहुवचन 'स्पर्धे' ७/४/११९ परिभाषा का बाध करने के लिए है । इसके बारे में उन्होने 'समानानां तेन दीर्घः' १/२/१ सूत्र के 'न्यासानुसन्धान' में विशेष चर्चा की है, किन्तु यही उनका अपना अभिप्राय/मन्तव्य है और इसी सूत्र का 'शब्दमहार्णवन्यास' उपलब्ध नहीं है अतः शास्त्रकार का अपना अभिप्राय क्या है इसका बोध/ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है। अतः श्रीलावण्यसूरिजी के इसी मन्तव्य की यहाँ चर्चा करना अस्थानापन्न है । इस न्याय का तात्पर्य बताते हुए वे कहते हैं कि बिना किसी प्रयोजन हेतु कोई भी प्रवृत्ति नहीं होती है । (न हि प्रयोजनमनुद्दिश्य कस्यचित् प्रवृत्तिः)न्याय से शास्त्र की प्रवृत्ति कभी भी निरर्थक नहीं होती है । तो प्रयोजनरहित शास्त्रप्रवृत्ति का स्वीकार कैसे किया जाय ? यहाँ प्रयोजन का अभाव तत्कालीन रूपभेदस्वरूप समझना चाहिए। उससे भिन्न परम्परित प्रयोजन तो सर्वत्र होता ही है, अत: किसी भी सूत्र की प्रवृत्ति से तत्कालीन फल न मिलता हो, तथापि उसी सूत्र की प्रवृत्ति करनी चाहिए, ऐसा यह न्याय कहता है ।। _ 'इको झल्' (पा.स्. १/२/९) सूत्र के महाभाष्य में भी यह न्याय कहा है किन्तु उसकी पद्धति थोडी सी भिन्न है । वह इस प्रकार है -: 'दीर्घ' का भी 'दीर्घ' करने का क्या फल ? तो गुण न हो वह । गुणाभाव कालान्तर भावि फल है । दीर्घ में तत्कालीन कोई अन्तर नहीं पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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