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________________ ३४४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) अर्थात् इसी सूत्र से हुआ विकल्पोक्ति रूपविधान अनन्तर पूर्वोक्त निषेध का ही विकल्प से विधान होता है। यद्यपि शब्द शक्ति से यही विधि - निषेध इत्यादि अनन्तर सूत्र सम्बन्धित ही होता है अतः 'विचित्रा शब्दशक्तयः' न्याय का ही अनुवाद यह न्याय है। ___ इस न्याय की आवश्यकता बताते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'नामन्त्र्ये' २/१/९२ आदि सूत्र में निषेध किया है किन्तु निषेध्य नहीं कहा है, अत: वहाँ स्वाभाविक ही प्रश्न होता है कि यह निषेध पूर्वोक्त सभी विधि का है या किसी एक का ? यदि किसी एक का हो तो वह किस विधि का निषेध करता है, वही नियत नहीं था । उसका निर्णय करने के लिए यह न्याय है। इस प्रकार विधि में भी जहाँ विधि का विधान किया हो और विधेय न बताया हो, तो उसका निर्णय भी इसी न्याय से होता है। प्रत्यासत्तिमूलक यह न्याय है । निषेधशास्त्र को सदैव किसी निषेध्यशास्त्र की आकांक्षा रहती है, तो वही निषेध्य कौन होता है ? उसका उत्तर यह न्याय देता है। निषेधशास्त्र के अव्यवहित पूर्व में जो होता है वही नजदीक होने से निषेध्य बनता है । व्यवहित हो वह निषेध्य नहीं बन सकता है क्योंकि अव्यवहित का निषेध करने के बाद व्यवहित का निषेध करने का सामर्थ्य इसमें नहीं रहता है। __ अब प्रथम निषेध्य हो, बाद में निषेध आया हो, उसके बाद में पुनः विधि आये, तो वही विधि पूर्वोक्त निषेध का प्रतिविधान करता है अर्थात् अनन्तर पूर्वोक्त निषेध की पूर्व में आये हुए विधि का ही विधान करता है, ऐसा समझना चाहिए । यह न्याय जैनेन्द्र परिभाषा को छोड़कर सभी परिभाषासंग्रह में है । ॥१३४॥ पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्तिः ॥१२॥ बारिश की तरह लक्षण/सूत्र की प्रवृत्ति होती है। 'पर्जन्य' अर्थात बारिश और लक्षण अर्थात सूत्र । जैसे बारिश रिक्त तालाब या पूर्ण तालाब बिना देखे ही, सर्वत्र बरसता है वैसे व्याकरण के सूत्र स्वविषय को प्राप्त करके सर्वत्र प्रवृत्त होता है, इसका कुछ भी फल न मिलता हो तो भी । ___ यदि सूत्र की प्रवृत्ति न हो तो, वही सूत्र अनर्थक माना जाय, अतः जहाँ प्राप्ति हो वहाँ, सर्वत्र सूत्र की प्रवृत्ति करनी चाहिए ऐसा यह न्याय कहता है । उदा. 'गोपायति, पापच्यते, चिकीर्षते, पुत्रीयति' इत्यादि प्रयोग में 'आय, यङ् सन्, क्यन्' आदि अकारान्त होने से तदन्त धातु अकारान्त ही माना जाता है, अतः 'शव्' की आकांक्षा न होने पर भी 'कर्तर्यनद्भ्यः शव्' ३/४/७१ से 'शव' होगा ही । उसी प्रकार 'दधि अत्र' प्रयोग में 'हूस्वोऽपदे वा' १/२/२२ से ह्रस्व का भी पुनः ह्रस्व होगा । यहाँ किसीको शंका हो सकती है कि 'दधि अत्र' प्रयोग में हस्व करने का फलाभाव कहाँ है ? क्योंकि हुस्वविधान के सामर्थ्य से ही यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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