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________________ ३२५ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १२१) ॥१२१॥ व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्तिः ॥६४॥ 'व्याख्या' से विशेष अर्थका बोध/ज्ञान होता है । सूत्र से व्याख्या का अभ्यर्हितत्व/महत्त्व ज्यादा है, उसका ज्ञापन करने के लिए यह न्याय है। उदा. 'करीषगन्धेरपत्यं वृद्धं स्त्री' अर्थ में 'ङसोऽपत्ये' ६/१/२८ से करीषगन्धि' शब्द से 'अण्' प्रत्यय होगा। वही 'अण' का 'अनार्षे वृद्धे-'२/४/७८ से 'ष्य' आदेश होगा । बाद में 'अणजेयेकण नब्स्नटिताम्' २/४/२० से अणन्तलक्षण 'डी' होने की प्राप्ति है किन्तु वह नहीं होता है क्योकि इस सूत्र में 'अण' का स्वरूप से ग्रहण किया है। जबकि यहाँ 'ष्य' रूप 'अण्' है अतः 'ङी' प्रत्यय नहीं होगा और यह बात 'अणजेयेकण्'- २/४/२० सूत्र की व्याख्या से प्राप्त होती है क्योंकि सूत्र में इस प्रकार का अर्थ करने के लिए कोई ज्ञापक नहीं है। इस प्रकार 'डी' नहीं होने पर अकारान्त होने से स्त्रीलिङ्ग में 'आत्' २/४/१८ से 'आप' प्रत्यय होगा और 'करीषगन्ध्या' प्रयोग ही होगा । 'नेमार्द्ध-' १/४/१० सूत्र में 'तयट्' और 'अयट्' प्रत्ययों का 'नेम' आदि शब्दों के बीच निःशंक पाठ किया है वह इस न्याय का ज्ञापक है । 'तयट' और 'अयट्' दोनों नाम नहीं हैं किन्तु प्रत्यय हैं और वही प्रत्ययान्त नाम यहाँ लिया जायेगा ऐसा इस न्याय से, इसी सूत्र की व्याख्या से स्पष्ट होगा, ऐसा मानकर नि:संकोच 'नाम' के बीच पाठ किया है। - यह न्याय अनित्य है , अतः व्याख्या से ही अर्थ की नित्यता सिद्ध होने पर भी 'शरदः श्राद्धे कर्मणि' ६/३/८१ सूत्र में 'कर्मणि' शब्द रखा है । यदि यह न्याय नित्य होता तो 'सृजः श्राद्ध जिक्यात्मने तथा' ३/४/८४ में जैसे 'श्राद्ध' का अर्थ 'श्रद्धावान्' लिया जाता है । जबकि 'श्राद्धमद्यभुक्तमिकेनौ' ७/१/१६९ में श्राद्ध' का अर्थ 'पितृदेवत्यकर्म' लिया जाता है । इसी प्रकार 'शरदः श्राद्धे कर्मणि' ६/३/८१ में 'श्राद्ध' शब्द का अर्थ 'पितृदेवत्यं कर्म' व्याख्या से प्राप्त हो सकता था तथापि यहाँ 'कर्मणि' शब्द का प्रयोग किया, वह इस न्याय की अनित्यता बताता है। इस न्याय के ज्ञापक 'नेमार्द्ध-' १/४/१० सूत्रगत 'तय' और 'अय' प्रत्यय ही लिये जायेंगे क्योंकि 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ या 'यत्र येन विना यदनुपपन्नं तत्र तेन तदाक्षिप्यते' न्याय से यहाँ 'तय' और 'अय' प्रत्ययान्त 'नाम' का ही ग्रहण होगा क्योंकि प्रत्ययाऽप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव ग्रहणम्' न्याय से 'तय' और 'अय' प्रत्यय ही लिए जायेंगे किन्तु 'साहचर्यात् सदृशस्यैव' न्याय से 'नाम' के बीच' 'तय' और 'अय' का पाठ किया होने से, उसे 'नाम' स्वरूप ही लेना पड़ेगा । अतः 'तय' और 'अय' प्रत्यय लेना कि नाम लेना, इसका कोई निर्णय नहीं हो सकेगा । अतः इस न्याय से सूत्र की व्याख्या/वृत्ति के आधार पर 'तय' और 'अय' को प्रत्यय मानकर तदन्त 'नाम' का यहाँ ग्रहण होगा। श्रीलावण्यसूरिजी ने इस न्याय की चर्चा करते हुए बताया है कि 'तत्राऽसन्दिग्धानुष्ठानसिद्ध्यर्थेऽत्र शास्त्रे तत्र तत्राचार्यैः सन्दिग्धोच्चारणं कृतं' अर्थात् 'इस शास्त्र में असन्दिग्धानुष्ठान की Jain Education International For Private & Personal Use Only .www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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