SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ११५) ३१७ न्याय न होता तो 'स्याद्वाद' के आश्रय से ही 'वा' शब्द बिना ही, केवल 'हस्वः स्यात्' कहने से ही विकल्प से ह्रस्व हो जाता अर्थात् 'सिद्धिः स्याद्वादात् १/१/२ सूत्र से ही विकल्प का कथन हो सकता है तथापि सूत्र में 'वा' शब्द रखा, वह इम न्याय के अस्तित्व का बोधक है और यह न्याय होने से 'हुस्वः स्यात्' कहने से केवल ह्रस्व ही होता, वह न हो इसके लिए 'वा' शब्द का प्रयोग करना आवश्यक है । "विधिनिमन्त्रणामन्त्र-'५/४/२८ से 'कामचार' मे भी सप्तमी (विध्यर्थ) होती है, वैसे यहाँ भी 'हूस्वः' कहने से ही 'हुस्वः स्यात्' च 'न स्यात्' अर्थ हो सकता है।। उपलक्षण से क्वचित् (वाक्य के स्थान पर) पद मे भी 'एवकार' का प्रयोग समझ लेना चाहिए । उदा. 'लुगस्यादेत्यपदे' २/१/११३ सूत्रगत 'अपदे' के साथ 'एवकार' प्रयुक्त है, अर्थात् 'अपदे एव' अर्थ करने से दण्डाग्रम्' में 'वृत्त्यन्तोऽसषे' १/१/२५ से होनेवाले, वृत्ति के अन्तस्वरूप 'अग्र' को पद संज्ञा नहीं होगी और उसका 'अ' अपदादि ही कहा जायेगा तथापि' लुगस्यादेत्यपदे' २/१/११३ से पूर्व 'अ' का लोप नहीं होगा क्योंकि समास अवस्था में 'अग्र' शब्द वृत्ति( समास) का अन्तिम खण्ड होने से 'वृत्त्यन्तोऽसषे' १/१/२५ से उसमें पदत्वका निषेध होने पर भी, समास से पूर्व वह पद था ही, अत: वही 'अ' अपदादि नहीं कहा जायेगा किन्तु पदादि भी कहा जायेगा और अपदादिस्थे एव' अर्थ करने से, उसमें यही 'अ' का समावेश नहीं होता है । जहाँ नित्य 'अपदादि' अकार और एकार हो, वहाँ ही, 'लुगस्यादेत्यपदे' २/१/११३ से पूर्व 'अ' का लोप होता है । उदा. 'पचन्ति' । यहाँ 'शव' सम्बन्धि 'अ' का, 'अन्ति' का 'अ' पर में आने से लोप होता है। यही 'अन्ति' का 'अ' नित्य अपदादि ही है। इस न्याय के इसी पद सम्बन्धित अवधारणार्थ का ज्ञापन ऐसे एवकार रहित सूत्र ही हैं और वे इस न्याय के द्वारा स्वयमेव अवधारण अर्थ प्राप्त कर लेंगे, ऐसा विचार करके ही 'अनवधारणोक्ति' की गई है। इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन 'द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति' न्याय से होता है । यदि यह न्याय नित्य ही होता तो प्रत्येक वाक्य का सावधारणार्थक अर्थात् निश्चयात्मक ही अर्थ होता तो उसके लिए पुनः विधान करने की आवश्यकता नहीं थी। यहाँ 'व्याकरणशास्त्र में कुछेक विधियों का दो-दो बार विधान किया गया है। वह, सामान्य रूप से, उसी वाक्य का निश्चयात्मक अर्थ नहीं होने के कारण, किया गया है। __ आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने पूर्व के न्याय में बताया है कि एक न्याय दूसरे न्याय का बाधक बनता नहीं है अर्थात् न्यायों में परस्पर बाध्यबाधकभाव नहीं होता है । जबकि यहाँ 'द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति' और 'सर्व वाक्यं सावधारणम्' न्याय में परस्पर बाध्यबाधकभाव का उन्होंने स्वीकार किया है। अतः उनकी मूल मान्यता के बारे में पुनः विचार करना चाहिए । श्रीहेमहंसगणि ने 'न्यायसंग्रह' में सर्वत्र न्यायों में परस्पर बाध्यबाधकभाव मानकर, न्यायों की अनित्यता बतायी है। व्याकरण के सूत्र के अर्थ को निश्चितता प्रदान करनेवाला यह न्याय है और यही निश्चितता स्वाभाविक होने से अन्य किसी भी परिभाषासंग्रह में यह न्याय प्राप्त नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy