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________________ अ ३१६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) का अभाव ही है । अतः इस न्याय को केवल औचित्यमूलक ही मानना चाहिए । इस न्याय की लोकसिद्धता बताते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि लोक में भी संभव और व्यभिचार होने पर ही विशेषण का प्रयोग होता है। उदा. 'मनुष्य' को 'चतुष्पाद्' विशेषण नहीं दिया जाता है क्योंकि उसका कदापि संभव नहीं है और 'द्विपद्' विशेषण भी नहीं दिया जाता है क्योंकि उसका व्यभिचार कहीं भी पाया जाता नहीं है अर्थात् यही विशेषणत्व मनुष्य को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं होता है। इस न्याय के 'स्वौ' ज्ञापक के बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि ज्ञापक हमेशां अपनी सार्थकता बताता है। जबकि यह ज्ञापक अपनी सार्थकता नहीं बता सकता है। इस प्रकार इस न्याय का ज्ञापन होने के बाद स्वौ' विशेषण सार्थक नहीं होता है क्योंकि उसका अनुस्वार सिक दोनों के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता है। अत: यह न्याय केवल लौकिक व्यवहार और औचित्य सिद्ध ही है, ऐसा मानकर केवल अनुनासिक के साथ ही 'स्व' का सम्बन्ध करना । . इस न्याय की अनित्यता का अस्वीकार करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि कदाचित केवल संभव होने पर भी विशेषण का प्रयोग होता है। उदा. 'आपो द्रव्यम्' । वस्तुतः यद्यपि यहाँ 'अप्' को ही विशेषण मानने पर व्यभिचार भी है ही, किन्तु यदि 'अप्' को विशेष्य मानने पर 'संभव' पद केवल 'संभवासंभव' की व्यावृत्ति करनेवाला ही मानना । अतः संभव का अभाव हो तो विशेषण सार्थक नहीं होता है, ऐसा अर्थ हो सकता है, और इस प्रकार सोचने पर 'द्वे ब्रह्मणी वेदित्व्ये' में 'विदि' क्रिया के कर्म दो हैं, इसका बोध कराने के लिए 'द्वे' विशेषण रखना उचित है और 'ब्रह्मणी' स्वरूप द्विवचनान्त प्रयोग करने से ही उसका अर्थ प्राप्त हो जाता है, ऐसा न मानना चाहिए। ऐसे स्थान पर उन्होनें 'ब्रह्मणी' इत्यादि में स्थित द्विवचन को 'द्वे' विशेषण के अर्थ का ही अनुवादक माना है। यह न्याय केवल विशेषण की सार्थकता बतानेवाला होने से व्याकरण के सूत्र की समझ या उसकी प्रवृत्ति की स्पष्टता करनेवाला न होने से अन्य किसी परम्परा में इसको स्थान नहीं दिया है। ॥ ११५॥ सर्वं वाक्यं सावधारणम् ॥ ५८॥ सर्व वाक्यों को 'एवकार' से युक्त मानने चाहिए । इस न्याय से प्रत्येक वाक्य में 'एवकार ' का प्रयोग न किया हो तथापि अवधारणार्थक - निश्चयात्मक ‘एवकार' के अर्थ की प्राप्ति होती है । सामान्यतया जैन परम्परा में सर्वत्र ‘स्याद्वाद' का ही आश्रय लिया जाता है। निश्चयात्मक भाषा का कहीं भी प्रयोग नहीं होता है और व्याकरण में भी लक्ष्यसिद्धि के लिए 'सिद्धिः स्याद्वादात्' १/१/२ सूत्र से 'स्याद्वाद' का स्वीकार किया गया है। अत: व्याकरण में प्रत्येक स्थान पर 'स्याद्वाद' से अनिश्चितता पैदा हो सकती है। उसी अनिश्चितता को दूर करने के लिए यह न्याय है । इस न्याय के कारण सर्वत्र ‘स्याद्वाद' की प्रवृत्ति नहीं होती है। अतः व्याकरण में सर्व वाक्यों का उच्चारण 'एवकार'यक्त ही मानना । उदा. 'समानानां तेन दीर्घः'१/ २/१ यहाँ दीर्घविधि होगी ही, ऐसा अर्थ करना और वैसा अर्थ करने से 'दण्डाग्रम्' इत्यादि प्रयोग में दीर्घविधि होगी ही। इस न्याय का ज्ञापक 'ऋतृति इस्वो वा '१/२/२ इत्यादि सूत्रगत 'वा' शब्द है । यदि यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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