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________________ ३१२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) पूर्व का भी समावेश होता है । कहाँ, कौन सी विधि इष्ट है, उसके लिए लक्ष्यानुसार, शास्त्रकार द्वारा की गई व्याख्या का ही स्वीकार करना आवश्यक है।) इस न्याय के फलस्वरूप 'चयनं चितिः' इत्यादि प्रयोगों में स्त्रियां क्तिः' ५/३/९१ से क्ति प्रत्यय और 'युवर्णवृदृवशरणगमृद्ग्रहः' ५/३/२८ से 'अल्' प्रत्यय होने की प्राप्ति है । यहाँ ‘क्ति'स्त्रीप्रत्यय पर है, अत: उससे 'अल्' का बाध होगा और 'चितिः' रूप होगा । _ 'दुःखेन चीयते दुश्चयम्' इत्यादि प्रयोग में 'दुःस्वीषतः कृच्छ्राकृच्छ्रार्थात् खल्' ५/३/१३९ से 'खल्' प्रत्यय और 'युवर्णवृदृवशरण'- ५/३/२८ से 'अल्' प्रत्यय की प्राप्ति है । इन दोनों में 'खल्' प्रत्यय पर है, अत: 'खल्' होगा और 'दुश्चयम्' रूप सिद्ध होगा। 'पलाशानि शात्यन्तेऽनेन इति पलाशशातनो दण्डः' इत्यादि प्रयोगों में 'करणाधारे' ५/३/ १२९ से 'अनट्' और 'युवर्णवृदृ-' ५/३/२८ से 'अल्' होने की प्राप्ति है, किन्तु 'अनट' पर होने से, वह 'अल्' का बाध करेगा और 'अनट्' होकर 'पलाशशातनो दण्डः' प्रयोग होगा। ___'दुःखेन भिद्यते दुर्भेदा भूः' प्रयोग में 'स्त्रियां क्तिः' ५/३/९१ से 'क्ति' और दुःस्वीषत: - ५/३/१३९ से 'खल्' होने की प्राप्ति है, उसमें 'खल्' पर होने से, 'खल्' प्रत्यय ही होगा । 'सक्तवो धीयन्तेऽस्याम् इति सक्तुधानी' इत्यादि में 'क्ति' और 'अनट्' की प्राप्ति है, उसमें 'अनट्' पर होने से वही होगा। वस्तुतः इस न्याय की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है क्योंकि उपर्युक्त सभी उदाहरणों में 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ से ही काम चल सकता है, और प्रत्येक स्थान में 'पर' सूत्र ही बलवान् है अर्थात परत्वविशिष्ट व्यवस्था ही है तथापि कत्प्रत्यय के विषय में 'स्पर्द्ध'७/४/११९ परिभाषा का नैयत्व नहीं है, अतः बाध्यबाधकभाव की व्यवस्था का सूचन करने के लिए इस न्याय का स्वीकार किया गया है। श्रीहेमहंसगणि इस न्याय की अनित्यता बताते हुए कहते हैं कि 'जयः' इत्यादि प्रयोगों में 'क्ति' और 'अल्' दोनों की प्राप्ति है और उसमें 'क्ति' का विधान पर है तथापि 'युवर्णवृदृवशरण'५/३/२८ से 'अल्' प्रत्यय होकर 'जयः' सिद्ध होगा और 'शिरसोऽर्दनं शिरोऽतिः' इत्यादि में 'क्ति' और 'अनट्' दो में से 'अनट्' पर होने पर भी वह नहीं होगा और 'क्ति' प्रत्यय ही होगा। आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने इस न्याय को अनित्य मानने के बजाय/खिलाफ लक्ष्यानुसारी माना है। अतः कहीं कदाचित् इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है और 'पर' शब्द का इष्ट अर्थ करके पूर्व स्थित 'अल्' और 'क्ति' प्रत्यय करके अनुक्रम से 'जयः' और 'शिरोऽतिः' रूप सिद्ध किये गये हैं। श्रीहेमहंसगणि 'ऐसी व्यवस्था करने का कोई प्रयत्न नहीं किया है उसे इस न्याय का ज्ञापक मानते हैं। इस न्याय के बारे में विशेष विचार करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि न्याय प्रत्येक व्याकरण में समान होते हैं । अत: जिस व्याकरण में 'अल्' प्रत्यय से पूर्व 'स्त्री प्रत्यय' का विधान किया हो वहाँ 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ परिभाषा से व्यवस्था करना असंभव होने से, उसके लिए, इस न्याय का स्वीकार करना आवश्यक है और यही बात श्रीहेमहंसगणि की मान्यतानुसार है क्योंकि उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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