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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ११२)
३११ है किन्तु उसी अर्थ में होनेवाले अन्य कृत्यप्रत्यय का निषेध नहीं करता है और उसके लिए ही इस न्याय में 'अन्योऽन्य' शब्द रखा है।
यदि इस न्याय को पूर्वन्याय में सम्मिलित किया जाय तो न्याय का स्वरूप इस प्रकार का होगा - १ 'शीलादिषु प्रत्ययेषु त्यादिषु च नासरूपोत्सर्गविधिः' या २ 'शीलादिषु प्रत्ययेषु त्यादिषु चान्योऽन्यं नासरूपोत्सर्गविधिः' प्रथम स्वरूप मान्य करने पर अपवाद स्वरूप त्यादि विभक्ति द्वारा, उसी अर्थ में होनेवाले अन्य औत्सर्गिक कृत् प्रत्यय का भी निषेध हो जाता है, जो इष्ट नहीं है। द्वितीय स्वरूप मान्य करने पर अपवाद-स्वरूप शीलादि प्रत्यय द्वारा, शीलादि अर्थ में होनेवाले औत्सर्गिक 'तृन्' इत्यादि का ही बाध होगा, किन्तु सामान्य कर्ता इत्यादि अर्थ में होनेवाले ‘णक, तृच्' इत्यादि का बाध नहीं होगा । अतः पूर्व न्याय 'अन्योऽन्य' शब्द से रहित ही चाहिए, जबकि इस न्याय में 'अन्योऽन्य' शब्द की विशेषतः आवश्यकता है । अतः दोनों न्यायों को पृथक् करना जरूरी है।
इस न्याय का ज्ञापन होने के बाद, 'वाऽऽकाङ्क्षायाम्' ५/२/१०, 'ह-शश्चद् युगान्तःप्रच्छये ह्यस्तनी च' ५/२/१३, 'वाऽद्यतनी पुरादौ' ५/२/१५ इत्यादि सूत्र में 'वा' शब्द सार्थक होगा अन्यथा 'असरूपोऽपवादे'- ५/१/१६ से ही औत्सर्गिक त्यादि प्रत्यय की प्रवृत्ति होनेवाली थी ही, तो यही 'वा' शब्द सर्वत्र व्यर्थ ही होता, अतः यही प्रत्येक 'वा' शब्द, इस न्याय का ज्ञापक बन सकता है।
बृहद्वृत्ति में कहा है कि यही 'वा' शब्द का ग्रहण, विभक्ति में असरूपविधि का निषेध करने के लिए है । यद्यपि यहाँ सामान्य से 'विभक्तिषु' शब्द रखा है, किन्तु 'त्यादि' शब्द का प्रयोग नहीं किया है, तथापि असरूपविधि का अधिकार 'स्त्रियां क्तिः' ५/३/९१ सूत्र तक ही है और वहाँ तक त्यादि का ही संभव है । अतः बृहद्वृत्ति के शब्द द्वारा इस न्याय के अस्तित्व का स्वीकार किया जाता है।
__ यह न्याय अन्य किसी भी परम्परा में नहीं है क्योंकि वहाँ कृदन्त के साथ-बीच में शायद त्यादि प्रत्ययों का विधान ही नहीं किया गया है।
॥११२॥ स्त्रीखलना अलो बाधकाः स्त्रियाः खलनौ ॥५५॥ ___ स्त्री प्रत्यय, 'खल्' प्रत्यय और 'अनट्' प्रत्यय, उसी विषय में होनेवाले 'अल' प्रत्यय के बाधक बनते हैं और 'खल्' और 'अनट्' प्रत्यय स्त्रीप्रत्यय के बाधक बनते हैं।
___ 'स्त्रियां क्तिः' ५/३/९१ सूत्र के अधिकार में आये हुए 'क्ति, क्यप्, श, य, अ, अङ्, अन, क्विप्, , इञ्, अनि, णक' इत्यादि प्रत्यय स्त्रीप्रत्यय कहे जाते हैं । 'अन' से अनट् प्रत्यय लेना। 'असरूपोऽपवादे-'५/१/१६ में कहे गये 'प्राक्क्तेः ' शब्द से 'स्त्रियां क्तिः' ५/३/९१ सूत्र से पूर्व आये हुए कृत्प्रत्ययों में 'असरूपविधि' की व्यवस्था की गई है। जबकि अगले/बाद के प्रत्ययों में 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ सूत्र से व्यवस्था करने के लिए यह न्याय है । (यहाँ इस न्याय से बाद में आये हुए 'स्त्री प्रत्यय, खल् प्रत्यय, अनट् प्रत्यय' और 'अल्' प्रत्यय में बाध्यबाधकभाव की व्यवस्था की गई है । यह न्याय स्पर्धामूलक ही है, अत: ‘स्पर्द्ध' ७/४/११९ सूत्र के प्रपंच रूप है । यहाँ 'पर' शब्द का पाठकृत परत्व और इष्टत्वरूप परत्व अर्थ किया गया है । अतः 'पर' शब्द में इष्ट हो ऐसे
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