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________________ ३०४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'महीपूजायाम्' से 'कण्ड्वादि' होने से 'धातोः कण्ड्वादेर्यक्' ३/४/८ से 'यक्' प्रत्यय होने पर, 'महीयते' में भी , ‘महींङ्' के ङित्व से आत्मनेपद होगा और ये सब धातु अपने समुदाय के साथ व्यभिचरित नहीं हैं अर्थात् समुदाय में ही रहते हैं और समुदाय को छोड़कर अकेले नहीं रहते हैं। 'कुस्म्, चित्रङ्' और 'महीङ् धातु से अनुक्रम से जब यथासंभव 'णिच्', 'क्यन्' और 'यक्' होने के बाद, प्रेरक प्रयोग में णिग् प्रत्यय होने पर, वे णिगन्त धातुओं को इदित्त्व या ङित्त्व विशेषित नहीं करेंगे क्योंकि णिगन्त को छोड़कर, इन धातुओं का प्रयोग होता है, अतः केवल आत्मनेपद ही नहीं होगा किन्तु परस्मैपद भी होगा क्योंकि 'णिग्' में ग कार उभयपद के लिए है । अतः 'कुस्मयति, चित्रीययति महीययति' इत्यादि में परस्मैपद हुआ है। इस न्याय का ज्ञापक 'कुस्मिण्' इत्यादि इदित् या ङित् किये हैं वह है । यह न्याय न होता तो आत्मनेपद नहीं हो सकता और 'इ' तथा 'ङ्' अनुबन्ध निष्फल होने से न करने चाहिए, तथापि किये गये हैं, वह इस न्याय का ज्ञापन करता है। . इस न्याय की अनित्यता प्रतीत नहीं होती है। पाणिनीय आदि अन्य व्याकरणों में आये हुए 'अवयवेऽचरितार्थानुबन्धाः समुदायेषु उपकारका भवन्ति' न्याय जैसा ही यह न्याय है और पूर्ण समुदाय के बजाय, उसी समुदाय के एक अवयव में किया गया अनुबंध या लिङ्ग ही इस न्याय का ज्ञापक है । शाकटायन, व्याडि के परिभाषासूचन में "समुदायेषु प्रवृत्ताः शब्दा: अवयवेष्वपि वर्तन्ते ॥४५॥" परिभाषा है किन्तु इसका अर्थ सिद्धहेम के इस न्याय से विरुद्ध है । “अवयवप्रसिद्धेः समुदायप्रसिद्धिर्बलीयसी" न्याय व्याडि के परिभाषापाठ और पुरुषोत्तमदेव की बृहत्परिभाषावृत्ति में है किन्तु इसका भी इस न्याय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। ॥१०८॥ येन धातुना युक्ता प्रादयस्तं प्रत्येवोपसर्गसंज्ञा ॥५१॥ 'प्र' आदि शब्द, जिस धातु के अर्थ में वृद्धि या परिवर्तन या अर्थ को मर्यादित करते हों या जिस धातु के अर्थ को विशेषित करते हों या अर्थ का द्योतन करते हों उसी धातु के प्रति, उन्हीं प्रादि को 'उपसर्ग' संज्ञा होती है। अन्य धातु प्रति उन्हीं 'प्रादि' को उपसर्ग संज्ञा नहीं होती है, अतः उन्हीं प्रादि को उपसर्गनिमित्तक कोई कार्य नहीं होता है। उदा. 'प्रगता ऋच्छका यस्मात् स प्रछेको देशः' इत्यादि प्रयोग में 'प्र' 'गम्' धातु से सम्बन्धित होने से 'गम्' प्रति ही उसकी 'उपसर्ग' संज्ञा होगी किन्तु 'ऋच्छ' प्रति उपसर्गसंज्ञा नहीं होगी। अतः 'प्रछेको देश:' में 'प्र' के 'अ' वर्ण का 'ऋत्यारुपसर्गस्य' १/२/९ से 'आर' नहीं होगा। इसका तात्पर्य इस प्रकार है । 'ऋच्छक' शब्द में प्रकृति और प्रत्यय, दो खण्ड हैं । उसमें 'प्रगता ऋच्छका' वाक्य में 'गतार्थ' का अन्तर्भाव करके 'प्र' द्वारा ‘णक' प्रत्यय के अर्थस्वरूप कर्ता को ही विशेषित किया जाता है किन्तु 'ऋच्छ' धातु का अर्थ किसी भी प्रकार से विशेषित नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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