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________________ ३०२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'प्रत्यये' शब्द में, इस न्याय का ज्ञापकत्व बताना आवश्यक नहीं है । यह बात सिर्फ इतना ही सिद्ध करती है कि लोकसिद्ध इस न्याय का प्रयोजनवश होकर, व्याकरणशास्त्र में भी आश्रय किया जाता है। । प्रस्तुत सूत्र में 'प्रत्यये' पद की व्यर्थता किस प्रकार है ? इसके बारे में वे दो विकल्प बताते हैं, बाद में दोनों में दोष बताकर 'प्रत्यये' शब्द का सार्थक्य प्रतिपादित करते हैं। ___ दूसरी पद्धति से विचार किया जाय तो, वस्तुतः 'दद्ध्वः' के 'ध्व' में 'उभयस्थाननिष्यन्नत्व' आता ही नहीं है क्योंकि यही 'ध्व' प्रकृति और प्रत्यय दोनों के स्थान में या प्रकृति के अवयव और प्रत्यय के अवयव, दोनों के स्थान में हुआ आदेश नहीं है । यही 'ध्व' तो केवल धातु के धकार और 'वस्' प्रत्यय के आद्य 'व' के संयोग से ही बना है। अतः इस न्याय के ज्ञापक के उदाहरण में उसको बताना उचित नहीं लगता है । तो 'गडदबादेः'- २/१/७७ सूत्रगत 'प्रत्यये' शब्द का इस प्रयोग में सार्थक्य क्या है ? उसके उत्तर में कहते हैं कि इस 'ध्व' में 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति मल्लग्रामादिवत्' न्याय से 'ध्व' में प्रत्यय के भाग/खण्ड स्वरूप 'व' के प्राधान्य की विवक्षा करने पर, उसी 'ध्व' में प्रत्यय का व्यपदेश हो सकता है, और इस प्रकार उत्पन्न प्रत्ययत्व के कारण, आद्य 'गडदब' का चतुर्थ व्यंजन न हो, इसके लिए 'गडदबादेः'- २/१/७७ सूत्र में प्रत्यये' शब्द रखा है, वह सार्थक है। दूसरी यह बात विशेष रूप से बतानी आवश्यक है कि श्रीहेमहंसगणि और लघुन्यासकार ने इस रूप की सिद्धि के लिए 'प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव' न्याय की प्रवृत्ति की है, वह भी उचित नहीं है । यहाँ केवल 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' न्याय से ही यही शंका पैदा हो सकती है । वह इस प्रकार है - यहाँ 'गडदबादेः'- २/१/७७ सूत्र में 'ध्व' शब्द रखा है। यदि यही 'ध्व' प्रत्यय स्वरूप और प्रत्यय से भिन्न अन्य अर्थवान् ‘ध्व', दोनों की प्राप्ति हो वहाँ ही इस 'प्रत्ययाप्रत्यययोः'- न्याय से व्यवस्था होगी । जबकि यहाँ प्रत्यय से भिन्न/अन्य 'ध्व', 'दद्ध्वः दद्ध्वहे' में अर्थवान् नहीं है। और ऐसा अर्थवान् अन्य 'ध्व' कहीं भी प्राप्त नहीं है, अतः 'प्रत्ययाप्रत्यययोः' न्याय से यहाँ व्यवस्था नहीं हो सकेगी। तो 'गडदबादेः'- २/१/७७ सूत्र में 'प्रत्यये' शब्द का ग्रहण क्यों किया ? उसका प्रत्युत्तर देते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि केवल अर्थवद्ग्रहणे नाऽनर्थकस्य' न्याय के कारण ही 'प्रत्यये' शब्द रखा है क्योंकि 'दद्ध्वः' का 'ध्व' अनर्थक है। किन्तु यह बात भी उचित नहीं है, उसके दो कारण हैं १. 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' न्यायानुसार कोई भी पूर्ण शब्द या प्रत्यय ही अर्थवान् होता है, उसका एक खंड/अंश अर्थवान् नहीं होता है। यहाँ 'दद्ध्वः' में स्थित 'ध्व' प्रत्यय का एक अंश नहीं है, किन्तु 'वस्' प्रत्यय में धातु का 'ध्' सम्मिलित हुआ है और 'ध्व' स्वरूप बना है । इस प्रकार यहाँ 'ध्व' अर्थवान् नहीं है तथापि 'अर्थवद्ग्रहणे'- न्याय में उक्त 'अनर्थक' की व्याख्यानुसार भी नहीं है । अत: 'अर्थवद्ग्रहणे'- न्याय से यहाँ शंका पैदा नहीं हो सकती है। २. दूसरी बात यह कि 'गडदबादेः'- २/१/७७ सूत्रगत 'ध्व' प्रत्यय है ही नहीं । वह तो केवल प्रत्यय का एक अंश ही है । वस्तुतः 'ध्वम्, ध्वे' ही प्रत्यय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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