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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १०५)
२९७ श्रीहेमहंसगणि सम्मत हो, ऐसा नहीं लगता है। इसके बारे में वे कहते हैं कि "नामिनो गुणोऽक्ङिति ४/३/१ सूत्र की वृत्ति में बताया है कि 'क्विबन्त' शब्द में धातुत्व गौण स्वरूप में रहता होने से गुण नहीं होता है", किन्तु इसका भावार्थ/तात्पर्य/अभिप्राय क्या है, वह स्पष्ट रूप में समझ में नहीं आता है क्योंकि 'विच्' प्रत्ययान्त शब्द में धातुत्व गौण होने पर भी गुण हुआ, दिखायी देता है। उदा. 'हिनोति इति विच् हेः हयौ, हयः' इत्यादि में धातुत्व गौण होने पर भी गुण होता है और शब्दत्व/ नामत्व होने से स्यादि प्रत्यय हुआ है ।
श्रीहेमहंसगणि की यह बात उचित नहीं है।
वस्तुतः 'नामिनो गुणोऽक्ङिति' ४/३/१ से धातु के गुण का विधान किया गया है, और वह भी प्रत्यय पर में होने पर । यहाँ प्रत्यासत्ति से मुख्य धातुत्व लिया जाता है किन्तु 'नियौ, लुवौ' इत्यादि स्थान पर धातुत्व गौण होने से गुण नहीं होगा ऐसा कहना उचित है । 'नामिनो गुणो'- ४/ ३/१ सूत्र की बृहद्वृत्ति में 'नीभ्याम्, लूभ्याम्' स्थान पर धातु के गौणत्व का आश्रय करके गुण की निवृत्ति की गई है, अतः 'क्विप्' का स्थानिवद् भाव करके 'क्विप्' के कित्व से गुण नहीं होता है, ऐसे भावार्थयुक्त समाधान उचित नहीं है क्योंकि 'नामिनो'- ४/३/१ सूत्र में 'अक्ङिति' का अर्थ 'कित्, ङित् को छोड़कर अन्य प्रत्यय पर में हो तो,' ऐसा होने से, जिस प्रत्यय के कारण, धातु के स्वर का गुण होनेवाला है, वही प्रत्यय 'कित् डिस्' से भिन्न होना आवश्यक है, किन्तु 'नियौ' में 'नी' से पर आया हुआ 'औ' 'कित्, ङित्' नहीं है और 'क्विप्' के स्थानिवद्भाव से भी 'औ' में "कित्त्व ङित्त्व' नहीं आता है क्योंकि वह उसका धर्म नहीं है। यदि यहाँ 'प्रसज्यप्रतिषेध' अर्थात् 'कित्, ङित्' से भिन्न अर्थ करने पर, 'क्विप्' के स्थानिवद्भाव से किसी प्रकार से गुण का वर्जन हो सकता है किन्तु यहाँ प्रसज्यप्रतिषेध नहीं लिया गया है क्योंकि 'पर्युदास' का स्वीकार करने में लाघव है। अतः 'नीभ्याम्' इत्यादि में धातु से क्विप् प्रत्यय होकर, 'नाम' संज्ञा होने के बाद ही 'भ्याम्' प्रत्यय आयेगा तब गुण का प्रश्न उपस्थित होता है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं । उसी समय 'नी' में धातुत्व गौण होने से गुण नहीं हो सकता है। जबकि 'हेः हयौ, हयः' में 'विच्' प्रत्यय होने पर, तुरत ही मुख्यधातुत्वनिमित्तक गुण हो ही जायेगा, बाद में उसे 'नाम' संज्ञा होगी अर्थात् गुणयुक्त ही 'नाम' होगा । जबकि 'नी' शब्द में 'क्विप्' कित् होने से ही मुख्यधातुत्वनिमित्तक गुण नहीं होगा।
अब 'नीभ्याम्' इत्यादि प्रयोग में, गुण के निषेध के लिए या तो 'क्विप्' का स्थानिद्भाव किया जाय या तो गौण धातुत्व माना जाय । यहाँ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी (शास्त्रकार)ने गौणत्व से गुण का निषेध किया है, अतः स्थानिवद्भाव का विकल्प उचित नहीं है।
इस न्याय का ज्ञापक 'स्यादौ वः' २/१/५७ सूत्र है । वह इस प्रकार है । 'धातोरिवर्णोवर्ण'२/१/५० से धातु सम्बन्धित 'इ वर्ण' और 'उ वर्ण' का 'इय्' और 'उव्' आदेश होता है, और इससे होनेवाले 'उव्' आदेश का बाध करने के लिए 'स्यादौ वः' २/१/५७ सूत्र बनाया है। इसी सूत्र से 'उ' का 'उव्' नहीं होगा किन्तु 'व' ही होगा और यही वत्व स्यादि प्रत्यय अनन्तर पर में होने पर होता
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