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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) किन्तु 'स' स्वयं अकृत्रिम नहीं है क्योंकि वही 'स' 'षः सोऽष्ट्यै'- २/३/९८ से हुआ है। अतः उसी 'स' का 'नाम्यन्तस्था'- २/३/१५ से 'ष' होने में कोई बाध नहीं आयेगा और 'मुसल' इत्यादि में स्वाभाविक (अकृत) 'स' होने से 'ष' नहीं होगा।
यह न्याय अन्य किसी परम्परा में नहीं है। ॥१०५॥ क्विबन्ता धातुत्वं नोज्झन्ति, शब्दत्वं च प्रतिपद्यन्ते ॥४८॥
'क्विप्' प्रत्ययान्त शब्द, (जो धातु से निष्पन्न हैं वह) अपने धातुत्व का त्याग नहीं करते हैं, और शब्दत्व (नामत्व) को ग्रहण करते हैं।
यहाँ 'शब्दत्व' से 'नामत्व' लिया गया है और सामान्यतया धातुत्व' से रहित और अर्थवत्त्व' से युक्त शब्द 'नाम' कहा जाता है। यहाँ 'क्विप्' का सर्वापहार/पूर्णतः लोप होता है, अतः उपलक्षण से पूर्णतः लोप होनेवाले विच् का भी यहाँ ग्रहण करना है अर्थात् 'विच्' प्रत्ययान्त शब्द भी धातुत्व का त्याग करते नहीं हैं और नामत्व को प्राप्त करते हैं ।
'धातुत्व' शब्द द्वारा सामान्य कथन करने पर भी, 'नामत्व' से युक्त 'धातुत्व' होने से, वही 'धातुत्व' गौण कहा जाता है। अतः 'शब्दत्व' के उपचार से 'वृक्ष' इत्यादि शब्दों की तरह 'नामत्व' भी प्राप्त करते हैं । अतः उसी 'क्विबन्त' और 'विजन्त' नाम से धातुत्व निमित्तक और नामत्त्व निमित्तक कार्य हो सकते हैं । ये दोनों कार्य परस्पर विरुद्ध होने से, एक होने पर, दूसरे का अभाव प्राप्त था, वह दूर करने के लिए यह न्याय है।
यही बात श्रीलावण्यसूरिजी दूसरी पद्धति से बताते हैं । वे कहते हैं कि 'निरुक्त' के अनुसार 'क्रियाप्रधानमाख्यातं, सत्त्वप्रधानानि नामानि ।' क्रियाप्रधान हो वह 'धातु (आख्यात)' कहा जाता है, और सत्त्वप्रधान हो वह 'नाम' कहा जाता है और इस न्याय के 'धातुत्वं नोज्झन्ति' अंश का अर्थ करते हुए कहते हैं कि क्विबन्त शब्द में धातुत्व अन्तभूर्त रहता है और वही शब्द होने से सत्त्वप्रधान है, अतः 'नामत्व' प्रकट रूप में रहता है। क्विबन्त सत्त्वप्रधान होने से उससे त्यादि प्रत्यय नहीं होते हैं किन्तु त्यादि प्रत्यय को छोड़कर अन्य धातुत्वनिमित्तक कार्य होते हैं।
उदा० नियौ, लुवौ' इत्यादि में क्विबन्त 'नी' और 'लू' शब्द से 'नाम' होने से स्यादि प्रत्यय हुए हैं और धातुत्व होने से 'धातोरिवर्णोवर्णस्येयु'- २/१/५० से धातुनिमित्तक 'इय्' और 'उज्' आदेश भी होते हैं।
यहाँ एक शंका यह होती है कि 'नयनं, लवनं' इत्यादि प्रयोग में भी 'इय, उव्' आदेश होने की प्राप्ति है तथापि वह क्यों न हुआ ? उसका समाधान देते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि 'इयुव' विधान से, 'नामिनो गुणोऽक्ङिति' ४/३/१ विधान पर है, अत: गुण ही होगा, 'इयुव्' नहीं होगा।
वैसे 'नियौ, लुवौ' में भी गुण होने की प्राप्ति है किन्तु 'क्विप्' का स्थानिद्भाव करने पर वह कित होने से गुण नहीं होगा । इसके सम्बन्ध में सिद्धहेम बृहद्वृत्ति में बताये हुए अभिप्राय के साथ
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