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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १०२)
२९१ १/२७ सूत्र का यहाँ निर्देश करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
इस न्याय के बारे में विशेष विचार करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यह न्याय भी स्वाभाविक ही है और सामान्यतया शब्दशास्त्र/व्याकरणशास्त्र में शब्दों को नित्य माने गये हैं, अर्थात् उसकी व्याकरण द्वारा निष्पत्ति नहीं हो सकती है। केवल शब्दों का अर्थबोध कराने के लिए शास्त्रकार /वैयाकरण शब्द में प्रकृति, प्रत्यय इत्यादि विभाग की कल्पना करते हैं, और यही कल्पना शब्द का जैसा अर्थ होता है वैसी ही की जाती है। अतः जब एक ही शब्द के भिन्न भिन्न अर्थ होते हैं, तब भिन्न भिन्न प्रकार से उसकी व्युत्पत्ति होती है । इसके बारे में भर्तृहरि ने 'वाक्यपदीय' में कहा है कि
'उपाया: शिक्षमाणानां बालानामुपलालनाः । असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा, ततः सत्यं समीहते ॥'
उपाय अर्थात् शब्द में प्रकृति-प्रत्यय विभाग की, और उसके स्वतंत्र अर्थ की कल्पना ही की जाती है । वस्तुतः ऐसा होता नहीं है, किन्तु अव्युत्पन्नमतिवाले (मंदबुद्धिवाले) बालजीवों को शब्द के अर्थ का सरलता से बोध कराने का यह प्रयत्न है। और यही बात अर्थान्तरन्यास अलंकार द्वारा समझायी जाती है । असत्य मार्ग द्वारा ही सत्य की प्राप्ति होती है। उदा. किसी मनुष्य को 'गवय' नामक प्राणि की आकृति छबी बताकर कहा जाय कि यह गवय है । वस्तुतः वही आकृति 'गवय' नहीं है, अत: वह असत्य है तथापि उसी आकृति देखने के बाद, जब वह 'गवय' देखेगा, तो उसे तुरत ही गवय की सच्ची/वास्तविक पहचान होगी।
यहाँ एक बात खास ध्यान देने योग्य है कि श्रीलावण्यसूरिजी ने शब्द के नित्यत्व पक्ष का स्वीकार करके अन्य व्याकरण परम्परानुसारी यह विचार प्रदर्शित किया है । सिद्धहेम की परम्परा में जैन परम्परानुसार अनेकांतवाद होने से शब्दों को नित्यानित्य माने हैं अर्थात् शब्द कथंचित् नित्य हैं और कथंचित अनित्य है। अतः जब अनित्यत्व पक्ष का आश्रय लिया जायेगा तब शब्द को व्युत्पन्न मानना चाहिए । वैसे प्रत्येक शब्द के लिए व्युत्पत्ति अनिवार्य मानी जाय तो, उन्हीं शब्दों के विभिन्न अर्थानुसार विभिन्न व्युत्पत्ति माननी चाहिए, और यही बात इस न्याय द्वारा बतायी गई है।
इस प्रकार 'नाम' की व्युत्पत्ति सिर्फ सिद्धहेम की परम्परा में ही अव्यवस्थित है, ऐसा नहीं है । पाणिनीय परम्परा में भी 'वडवा' शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से बतायी गई है १. तद्धित से
और २. कृदन्त से । तद्धित से इस प्रकार है :- 'बलमतिशायितमस्या' अर्थ में 'केशाद्वोऽन्यतरस्याम (पा. ५/१/१०९) सूत्र के वार्तिक 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते' से 'व' प्रत्यय होता है और स्त्रीलिङ्ग में 'आप' प्रत्यय पर में होने पर 'ब' का 'व' और 'ल' का 'ड' होगा क्योंकि 'ब' और 'व' तथा 'ड'
और 'ल' एक ही या समान माने जाते हैं । कृदन्त में 'बलं वाति' अर्थ में 'आतोऽनुपसर्गे' (पा. ३/ २/३) से क प्रत्यय होने पर अथवा 'बलं वजति' अर्थ में 'अन्येष्वपि दृश्यते' (पा. ३/२/१०१) सूत्र के वार्तिक 'अन्येभ्योऽपि' द्वारा 'ड' प्रत्यय होने पर, 'ल' का 'ड' और 'ब' का 'व' होकर 'वडवा' शब्द सिद्ध होगा।
'सृगाल :- सृजति मायाम्' अर्थ में 'सृज्' धातु से 'कालन्' प्रत्यय होने पर 'न्यङ्क्वादि' गण से 'ज' का 'ग' आदेश होकर 'सृगालः' अथवा 'असृग् आलाति' अर्थ में 'क' प्रत्यय होने पर
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