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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) धातु, विभक्त्यन्त और वाक्य तीनों को छोड़कर, अर्थवान् शब्द को 'नाम' कहा जाता है। वही 'नाम' की अर्थानुसारी या अर्थ का बोध कराने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार से व्युत्पत्ति की जाती है और व्युत्पत्ति अर्थात् शब्द में प्रकृति और प्रत्यय ऐसे दो विभाग की कल्पना । अतः 'नाम' की व्युत्पत्ति विविध प्रकार से की जाती है, ऐसा इस न्याय का अर्थ है।
उदा. 'वडवा,सृगाल, मयूर' इत्यादि शब्दों की ‘पृषोदरादि' और उणादि, दोनों प्रकार से सिद्धि की गई दिखायी पड़ती है । वह इस प्रकार है । १. 'पृषोदरादि' से 'अश्वस्याम्बा वडवा, असृगालेढि सृगालः, मह्यां रौति मयूरः' २. उणादि से 'वड' धातु आग्रहण अर्थ में है, उससे 'वडिवटि'- ( उणा-५१५) सूत्र से 'अव' प्रत्यय करके 'वडवा', 'सृ' धातु से 'सर्तेर्गोन्तश्च (उणा४७८) से कित् 'आल' प्रत्यय और 'ग' का आगम करके 'सृगालः' 'मीनाति' रूपवाले 'मी' धातु से 'मी-मसि' -( उणा-४२७) से 'उर ' प्रत्यय करके 'मयूरः' । 'सूर्य' शब्द भी दो प्रकार से निष्पन्न होता है । १. तद्धित प्रत्ययसे २. कृत्यप्रत्यय से । तद्धित में 'सूर' शब्द से 'मादिभ्यो यः' ७/२/ १५९ से स्वार्थिक'य' प्रत्यय होने पर सर्य' शब्द होगा और कदन्त में 'कप्यभिद्योध्य-सिदध्य-तिष्यपुष्य-युग्याज्य-सूर्यं नाम्नि' ५/१/३९ से सृ धातु से 'क्यप्' प्रत्यय करके संज्ञा में निपातन किया गया है।
इस प्रकार 'नाम' की व्युत्पत्ति विविध प्रकार से की गई होने से इस न्याय की सत्ता प्रतीत होती है । इस न्याय की प्रवृत्ति केवल रूढ शब्द (नाम) के लिए होती है किन्तु जो शब्द यौगिक है अर्थात् धातु से कृत्प्रत्यय और सामान्य नाम से तद्वित के अर्थवान् प्रत्यय होकर बने हैं उसकी और समास आदि की व्युत्पत्ति व्यवस्थित ही है। वहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है । इतने क्षेत्र के लिए यह न्याय अनित्य है ऐसा श्रीहेमहंसगणि कहते हैं । जबकि श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि "एतच्च 'अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम' १/१/२७ इति सूत्रेण येषां रूढशब्दानां नामसंज्ञा क्रियते तद्विषये व्युत्पत्तेरव्यवस्थानं वेदितव्यम् ।" इस वाक्य का सामान्य अर्थ इस प्रकार हो सकता है। "जिस रूढ शब्द की 'अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम' १/१/२७ सूत्र से 'नाम' संज्ञा की जाती है, उसकी व्युत्पत्ति में अव्यवस्था रहती है।" इस वाक्य का भावार्थ यह हो सकता है कि रूढ शब्द की 'नाम' संज्ञा दो सूत्र से होती हो, उसमें से एक सूत्र 'अधातुविभक्ति'-१/१/२७ हो तो उससे जिन रूढ शब्दों की 'नाम' संज्ञा होती हो उसकी ही व्युत्पत्ति अव्यवस्थित है किन्तु अन्य सूत्र से जिन रूढ शब्द की 'नाम' संज्ञा होती हो, उसकी व्युत्पत्ति व्यवस्थित ही है । या रूढ शब्द की 'नाम' संज्ञा 'अधातुविभक्ति'-१/१/२७ सूत्र से ही होती है और यौगिक शब्दों की 'नाम' संज्ञा अन्य सूत्र से होती है, ऐसा उनके विधान का अर्थ है और श्रीलावण्यसूरिजी को उपर्युक्त अन्तिम अर्थ अभिप्रेत है ऐसा लगता है, और पाणिनीय परम्परा में दोनों प्रकार के शब्दों को प्रातिपदिक (नाम) संज्ञा करने के लिए भिन्न भिन्न सूत्र हैं । १. रूढ शब्दों के लिए 'अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्' (पा.सू. १/ २/४५) और २. यौगिक शब्दों के लिए 'कृत्तद्धित-समासश्च'- (पा. १/२/४६) ।
जबकि सिद्धहेम की परम्परा में दोनों प्रकार के शब्द (रूढ और यौगिक) की यही एक ही 'अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम' १/१/२७ सूत्र से नाम संज्ञा होती है। अतः 'अधातुविभक्ति' - १/
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