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________________ २८८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) का अनित्यत्व नहीं बताना चाहिए । सब धातुओं का अनेकार्थत्व स्वीकार करके ही 'वाति' और 'विय' ('वा' और 'वींक') धातु का अनुक्रम से 'प्रवापयति' और 'प्रवाययति' रूप सिद्ध किये गये हैं और उसके आधार पर ही उसकी व्यर्थता की शंका की जाती है किन्त वस्ततः ऊपर बताया उसी तरह अनेक अर्थ का अभिधान करना, धातु का स्वभाव है, ऐसा स्वीकार करने पर, सब धातु, सभी अर्थ के वाचक नहीं बनेंगे, परिणामतः प्रजनार्थक 'वि' धातु के ही दो रूप सिद्ध करने के लिए कोई उपाय तो करना ही होगा । अत एव 'वियः प्रजने' ४/२/१३ का सार्थक्य स्पष्ट ही है । 'धातु सामान्यतया अनेक अर्थ के वाचक हैं, न कि विशेष रूप से', ऐसे विधान/प्रतिपादन के साथ 'उपसर्ग धातु के अर्थ का बाध करता है' ऐसे विधान संगत होते हैं। जो अर्थ नियम से प्रतीत होता है, वही उसका अर्थ है, अतः जहाँ उपसर्ग के कारण दूसरे अर्थ की प्रतीति होगी, वहाँ वही उपसर्ग उसी धात्वर्थ का बाधक होगा। ___ यद्यपि धातु के अनेकार्थत्व का स्वीकार सभी ने किया है, तथापि किसी ने इसे परिभाषा के स्वरूप में नहीं दिया है। ॥१०१॥ गत्यर्था ज्ञानार्थाः ॥४४॥ 'गति' अर्थयुक्त (गत्यर्थक) धातु, 'ज्ञान' अर्थयुक्त (ज्ञानार्थक) बनते हैं। धातु सम्बन्धित न्यायों का कथन चलता होने से, धातु विषयक इस न्याय की भी यहाँ चर्चा की गई है । 'धातवः' शब्द की पूर्व के न्यायसूत्र से यहाँ अनुवृत्ति ली गई है। उदा. 'शब्दोऽर्थं गमयति' अर्थात् 'शब्द अर्थ का ज्ञान कराता है' । संक्षेप में यहाँ 'गमयति' का अर्थ 'ज्ञापयति' हुआ है। इस न्याय का ज्ञापन ‘णावज्ञाने गमुः' ४/४/२४ सूत्रगत 'अज्ञाने' शब्द से होता है । यदि गति अर्थवाले 'इण्' धातु का 'ज्ञान' अर्थ न होता तो 'निवृत्ति' अर्थ बताने के लिए 'इण्' धातु का 'अज्ञाने' विशेषण रखा वह व्यर्थ हो जाता है और व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है । इस न्याय का ज्ञापन होने के बाद प्रत्याययति' इत्यादि प्रयोग में 'इण्' का 'गमु' आदेश नहीं होगा और इस प्रकार वह स्वांश में चरितार्थ होगा। यह न्याय लक्ष्यानुसारी होने से, क्वचित् इसकी प्रवृत्ति नहीं होती है अर्थात् यह न्याय अनित्य है और इसका ज्ञापन 'गतिबोधाहारार्थ-' २/२/५ सूत्रगत 'बोध' शब्द से होता है । यदि यह न्याय नित्य ही होता तो 'गति' शब्द से ही गत्यर्थक धातुओं के साथ साथ बोध (ज्ञान) अर्थवाले धातु का ग्रहण हो सकता है तथापि 'गति' के साथ साथ 'बोध' शब्द भी रखा है, वह इस न्याय की अनित्यता बताता है । अर्थात् सब गत्यर्थक धातु ज्ञानार्थक नहीं होते हैं। भाषा में 'गमयति, अवगच्छति, प्रत्यायति' इत्यादि प्रयोग ज्ञान के अर्थ में प्रवृत्त हैं, अतः इन सब प्रयोगों के मूल में स्थित 'गत्यर्थक' धातुओं का ज्ञान अर्थ होता है या नहीं ? ऐसा प्रश्न पैदा होना स्वाभाविक है । इसके संदर्भ में गत्यर्थक धातु में से ज्ञान का अर्थ कैसे निकलता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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