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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १००) २८७ __ यह न्याय अनित्य है, अतः उपसर्ग कदाचित् धातु के अर्थ का बाध करता है । उदा. 'तिष्ठति' का अर्थ 'वह खड़ा रहता है किन्तु-'प्रतिष्ठते' का अर्थ 'वह प्रयाण करता है' होता है । वैसे वसति, प्रवसति', 'स्मरति, प्रस्मरति' यह बात तब ही सुसंगत होती है, जब 'स्था' इत्यादि धातुओं के धातुपाठ निर्दिष्ट अर्थ को निश्चित माना जाय, और वह इस न्याय की अनित्यता के बिना संभव नहीं है। यदि इस न्याय से धातुओं का अनेकार्थत्व निश्चित ही होता तो 'स्था' इत्यादि धातुओं के "स्थिति' इत्यादि अर्थ की तरह 'गति' इत्यादि अर्थ का भी संभव होने से आचष्टे, आलोकते' इत्यादि प्रयोग में जैसे उपसर्ग को धातु के अर्थ का प्रत्यनुवर्तक या द्योतक माना है वैसे 'प्रतिष्ठते' इत्यादि में भी द्योतक मानना युक्तिसंगत है, किन्तु बाधक मानना उचित नहीं है, तथापि बाधक माना है, वह इस न्याय की अनित्यता के कारण ही । इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक 'वियः प्रजने' ४/२/१३ सूत्र है । 'प्रवापयति' और 'प्रवाययति' रूपों 'वाति' और 'वेति' दोनों धातु से 'णि' होकर सिद्ध हो सकते हैं, तथापि 'वियः प्रजने' ४/२/१३ सूत्र किया, वह इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन करता हैं । 'पुरो वातो गाः प्रवापयति' में 'वांक् गतिगन्धनयोः' धातु से ‘णिग्' हुआ है और 'प्रवाययति' में 'वींक प्रजनकान्त्यसनखादनेषु च' धातु से 'णिग्' हुआ है, तथापि 'वियः प्रजने' ४/२/१३ सूत्र करके 'वी' धातु के 'ई' का विकल्प से 'आ' किया वह, ऐसा सूचित करता है कि यह न्याय अनित्य होने से 'वांक्' धातु का प्रजन अर्थ में प्रयोग करना दुःशक्य है। इस न्याय के बारे में टिप्पण करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यह न्याय ज्ञापकसिद्ध नहीं है, अतः उसका ज्ञापक देना उचित नहीं है। इस न्याय का तात्पर्य/भावार्थ इतना ही है कि धातु के अर्थ जो धातुपाठ में बताये हैं, उन्हें छोड़कर अन्य अर्थ में भी वे प्रयुक्त होते हैं अर्थात् धातु में अन्य अर्थ का भी अभिधान करने की शक्ति है, और यह शक्तिग्रह ज्ञापन द्वारा नहीं हो सकता है, ऐसी उनकी मान्यता है । इसका कारण देते हुए वे शक्तिग्रह करानेवाले निमित्त इस प्रकार बताते हैं। १. व्याकरण, २. उपमान, ३. कोष, ४. आप्तवाक्य, ५. व्यवहार, ६. वाक्यांश (वाक्य का अन्य खण्ड) ७. विवृत्ति (टीका) टिप्पणी और ८. सिद्धपद का सांनिध्य ऊपर बताये गये 'शक्तिग्राहक' में अनुमान स्वरूप निमित्त का कथन नहीं है । अतः धातु में अनेकार्थत्व स्वभावसिद्ध मानना चाहिए और यही अनेकार्थत्व किसी व्यक्ति द्वारा निश्चित नहीं किया गया है किन्तु स्वाभाविक ही है । अतः कुछेक धातुओं से अनेक अर्थ का बोध होता है और कुछेक धातुओं से अनेक अर्थ का बोध नहीं होता है, ऐसा निश्चायक कोई विनिगमक नहीं है। इस न्याय से, कुछेक स्थान पर धातु अनेक अर्थवाले होते हैं, ऐसा जो कथन किया गया वह सिर्फ अनुवाद ही है, स्वतंत्र विधान नहीं है । धातुपाठ में निर्दिष्ट अर्थ में ही शास्त्रव्यवहार होता है, तथापि जब भी अन्य विशेष अर्थ या कोई कार्य का व्यावर्तन करना हो तब, उसी अर्थविशेष का ग्रहण भी धातु के स्वभावसिद्ध अनेकार्थज्ञापकत्व को दृढ करता है । अत एव 'तक्षः स्वार्थे वा' ३/४/७७ इत्यादि सूत्र में 'स्वार्थे ' शब्द व्यर्थ नहीं होगा। ऐसा स्वीकार करने पर 'वियः प्रजने' ४/ २/१३ इत्यादि सूत्र का सामंजस्य भी स्वत:सिद्ध ही है । परिणामतः उपर्युक्त उदाहरण द्वारा न्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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