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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ९९ )
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तब परोक्षा में 'जगणतुः ' रूप सिद्ध करने के लिए, इस न्याय की प्रवृत्ति आवश्यक है । यदि यह न्याय न होता तो, जब 'गण' धातु से परोक्षा में 'णिच्' नहीं होगा तब वह अकारान्त माना जायेगा और तो अनेकस्वरत्व के कारण परोक्षा प्रत्यय का 'आम्' आदेश होगा और 'गणामासतुः ' ऐसा अनिष्ट रूप होगा किन्तु 'जगणतुः ' रूप सिद्ध नहीं हो सकेगा ।
'णिच्' प्रत्यय का अनित्यत्व सर्वत्र नहीं है, किन्तु जहाँ किसी धातु से ऐसा अनुबंध दिखायी दे, जिसका णिजन्त अवस्था में कोई प्रयोजन न हो, तो उसी अनुबंध के निर्देश से, उसी धातु से 'णिच्' प्रत्यय को अनित्य मानना या जिन 'चुरादि' धातुओं के, साहित्य में 'णिच्' रहित प्रयोग प्राप्त हो, वहाँ 'णिच्' को अनित्य मानना । इसके अलावा 'अजीगणत्, अजगणत्' जैसे प्रेरक प्रयोग, जहाँ 'णिच्' और 'णिग्' का लोप हुआ हो, वहाँ 'निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपायः' न्याय से ण्यन्त 'गणि' धातु में से 'ड़' लोप होने पर 'अ' पुनः आ जाता है, और उसका लोप हुआ मान लेने पर समानलोपित्व आ जाता है, और 'ई वा गणः' कहने से ही 'अजीगणत्' के साथ साथ 'अजगणत्' रूप भी सिद्ध हो जाता है, तथापि ऐसे प्रयोग में ण्यन्त 'गण' धातु से, 'णिच्' का लोप होने के बाद उसको अकारान्त नहीं माना है । अतः उसमें समानलोपित्व प्राप्त नहीं होनेसे 'ई' के विकल्प में, सन्वद्भाव होकर, 'अजीगणत्' रूप ही सिद्ध होगा । अतः सूत्र में 'ई वा गणः' के स्थान पर च गण:' ४/१/६७ कहकर 'चकार' से 'अ' कार का अनुकर्षण किया है ।
इस न्याय के ज्ञापक के रूप में 'ई च गणः ' ४ / १/६७ सूत्र के 'च' को बताया गया है । ज्ञापक हमेशां व्यर्थ होकर न्याय का ज्ञापन करता है । अतः 'च' को श्रीहेमहंसगणि ने व्यर्थ बताया है, तथापि किसी को शंका हो सकती है कि 'च' व्यर्थ नहीं किन्तु सार्थक है, क्योंकि 'ई वा गण: ' कहने से मात्रागौरव हो जाता है और 'ई च गण: ' ४/१/६७ कहने से मात्रा लाधव होता है । इसका समाधान देते हुए उन्होंने स्वयं इस न्याय के न्यास में कहा है कि आपकी शंका उचित है कि 'ई च गणः' कहने से मात्रालाघव होता है किन्तु प्रक्रियागौरव हो जाता है, वह इस प्रकार है पहले यहाँ च कार से पूर्वसूत्र में से अकार का अनुकर्षण होता है, बाद में ईकार और अकार का विधेय रूप में निर्देश होता है। जबकि 'ई वा गण: ' कहने प्रक्रियालाघव होता है । वह इस प्रकार है : यहाँ अकार का अनुकर्षण नहीं है । अतः विधेय रूप में केवल 'ई' ही है । अतः पक्ष में यथाप्राप्त 'ई' की ही अनुज्ञा होगी ।
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और मात्रालाघव से भी प्रक्रियालाघव महत्त्वपूर्ण है, वह सबको मालूम ही है । अतः प्रक्रिया गौरव का आदर करके या चिन्ता किये बिना 'ई च गण: ' ४ / १/६७ कहा वह चकार प्रतिपादित करता है । अतः वह ज्ञापक है ।
व्यर्थता
'ई च गण:' ४/१/६७ सूत्र के लघुन्यास में ऊपर बताया उसी प्रकार से चकार को इस न्याय का ज्ञापक माना है किन्तु बृहद्वृत्ति के अनुसार वह सही प्रतीत नहीं होता है क्योंकि वहाँ शास्त्रकारने स्वयं कहा है कि 'गण' धातु अकारान्त होने से 'समानलोपि' है । अत: सन्वद्भाव या दीर्घविधि की प्राप्ति ही नहीं है । अतः इसी सूत्र से 'अजीगणत्' में 'ई' किया जाता है । अतः यह
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