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________________ २८४ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण ) सन्वद्' - ४ / १/६३ से सन्वद्भाव नहीं होगा और उसका 'अ' का 'इ' और उसका ' लघोर्दीर्घो ऽस्वरादेः ' ४/१/६४ से 'ई' (दीर्घ) नहीं होगा । परिणामत: ' अजगणत्' रूप भी सिद्ध होगा, तथापि 'ईच गण: ' ४/१/६७ सूत्र में 'च' कार से 'अ' कार का अनुकर्षण किया, उससे ज्ञापित होता है कि 'गण' धातु से हुए 'णिच्' का लोप होगा तब वह अंकारान्त नहीं माना जायेगा, अतः समानलोपि भी नहीं होगा । अत एव 'ई वा गण:' सूत्र करने पर जब उससे 'अ' का 'ई' नहीं होगा तब भी 'असमानलोपे सन्वल्लघुनि डे' ४/१/६३ से सन्वद्भाव होकर 'ओर्जान्तस्थापवर्गे ' - ४ / १/६० से 'अ' का 'इ' होगा और 'लघोर्दीर्घो ऽस्वरादे: ' ४/१/६४ से उसका दीर्घ होगा । इस प्रकार 'ई वा गण: ' सूत्र से 'ई' नहीं होगा तब भी 'अजीगणत्' रूप ही सिद्ध होगा, किन्तु 'अजगणत्' रूप सिद्ध नहीं होगा । अतः 'अजगणत्' रूप सिद्ध करने के लिए 'ई वा गणः' के स्थान पर 'ई च गण: ' ४/१/६७ सूत्र करना आवश्यक है । भावार्थ इस प्रकार है । अनकारान्त 'गण्' धातु से 'णिग्' पर में होगा तब प्रथम 'ई वा गण: ' सूत्र करने पर उससे ईत्व के पक्ष में तो ईत्व होगा ही किन्तु ईत्व के अभाव पक्ष में भी, 'समानलोपि' नहीं होने से, सन्वद्भाव इत्यादि की सिद्धि होकर 'अजीगणत्' रूप ही होता है । इस प्रकार दोनों प्रकार से 'अजीगणत्' रूप ही होता है किन्तु 'अजगणत्' रूप किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सकता है । 'ई चर कहकर 'च' कार से 'अ' कार का अनुकर्षण किया है । अतः वह सन्वद्भाव का बाध करके भी अकार करेगा और ' अजगणत्' रूप होगा । इस प्रकार 'णिच्' अनित्य होने से, 'णि' के अभाव पक्ष में इस न्याय से पैदा होनेवाले अनकारान्त णिगन्त 'गण्' धातु का 'अजगणत्' रूप सिद्ध नहीं हो सकता था । उसे सिद्ध करने के लिए 'ई च गण: ' ४/१/६७ सूत्र में च कार से अकार का अनुकर्षण, इस न्याय की शंका से ही किया गया है । अतः वह इस न्याय का ज्ञापक है, वह स्पष्ट ही है । यह न्याय अनित्य / असंपाती है । अतः 'प्रतण् गतौ वा' में 'वा' शब्द 'णिज्' और अनकारान्तत्व के विकल्प के लिए है, ऐसा धातुपारायण में कहा गया है । वह इस प्रकार है । यदि यह न्याय नित्य होता तो 'वा' शब्द ' णिच्' के विकल्प के लिए है इतना ही कहा होता तो भी चलता क्योंकि 'णिच्' के अभाव में इस न्याय से, अकारान्तत्व का अभाव स्वयं सिद्ध ही है । तथापि आचार्यश्री ने कहा कि 'अदन्तत्व' के विकल्प के लिए भी यही 'वा' शब्द है, वह यह न्याय अनित्य होने से ही कहा है । श्रीलावण्यसूरिजी इस न्याय की आवश्यकता का मूल कारण बताते हुए कहते हैं कि पूर्व न्याय से 'चुरादि' धातु से 'णिच्' अनित्य माना गया है अत: जब 'गण' धातु से 'णिच्' नहीं होगा, १. २. यहाँ श्रीमहंसगणि ने 'णिचोऽनित्यत्वादभवनपक्षे' कहा है, वह उचित नहीं है। यहाँ 'णिच्' या 'णिग्' का शुरु से अभाव नहीं है, किन्तु णिच् या णिगू होने के बाद उसका लोप होता है । यदि शुरु से ही णिच् का अभाव होता तो 'णिश्रिद्रुस्रुकम:' ३/४/५८ से 'ङ' प्रत्यय ही न होता । अतः यहाँ 'णिच्- णिग्' प्रत्यय करके उसका 'णेरनिटि' ४/३/८३ से लोप किया जाता है । यहाँ श्रीहेमहंसगणि ने ‘ईच्च' कहा है किन्तु सूत्र में 'ई च' कहा होने से हमने भी 'ई च' ही लिखा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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