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________________ २८२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) तथापि 'अङ्' प्रत्यय के अधिकार में पाठ किया, उससे ज्ञापित होता है कि 'णि' का लोप अनित्य है । अतः 'चिन्तिया, पूजिया, सुप्रकथिया' इत्यादि की सिद्धि होती है । श्रीहेमहंसगणि ने 'पूज्या' रूप दिया है । जबकि लघुन्यासकार ने 'पूजिया', सुप्रकथिया' रूप दिये हैं, उसका आधार क्या है वह स्पष्ट नहीं होता है । बृहद्वृत्ति में इसके बारे में कोई निर्देश नहीं है । इस न्याय के बारे में अपना निजी मत देते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यह न्याय अन्य किसी भी व्याकरण में प्राप्त नहीं है और इसकी कोई विशेष आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती है। इस न्याय के उदाहरण 'सुप्रकम्पया' की अन्य प्रकार से सिद्धि की गई है। सुप्रकम्पं याति' विग्रह करके ‘बाहुलकात् विच्' प्रत्यय किया जाता है और श्रीहेमहंसगणि ने बताये हुए अन्य उदाहरण 'चिन्तिया, पूज्या' को वे इष्ट प्रयोग मानते नहीं हैं क्योंकि उसकी इष्टता के लिए कोई प्रमाण नहीं है। सिद्धहेमबृहद्वृत्तिमें भीषि-भूषि'-५/३/१०९ सूत्र की वृत्ति में कहा है कि "ये धातु ण्यन्त होने से 'णिवेत्त्यास'- ५/३/१११ से 'अन' होने की प्राप्ति थी, उसका बाध करने के लिए 'अङ्' प्रत्यय किया है।" और स्पृहयति धातु में 'णि' का लोप होने के बाद उपान्त्य 'ऋ' का गुण होकर 'स्पर्हा' जैसा अनिष्ट रूप होने की आपत्ति आती होने से 'अङ्' को 'ङित्' किया है और ये सब धातु ण्यन्त होने से उन सब धातु से 'अङ्' प्रत्यय किया है और सूत्र में भी बहुवचन रखा है। अतः ऐसे अन्य प्रयोगों को भी उसमें सम्मिलित किये जाते हैं । अत एव 'अङ्' के अधिकार में किये गए इसी सूत्र के पाठ से इस न्याय का ज्ञापन नहीं हो सकता है । और ज्ञापक के अभाव में इस न्याय का स्वीकार नहीं करना चाहिए, ऐसी श्रीलावण्यसूरिजी की मान्यता है। यहाँ 'चिन्तिया, पूज्या, पूजिया, सुप्रकथिया' इत्यादि प्रयोग के इष्टत्व के बारे में चर्चा न करके, साहित्य में जहाँ जहाँ ऐसे प्रयोग प्राप्त हों वहाँ वहाँ आर्षत्व से समाधान कर लेना, अत एव इसके लिए ऐसे कोई न्याय की आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती है, ऐसा अपना निजी मत है। यह न्याय अन्य किसी भी परंपरा में या परिभाषासंग्रह में उपलब्ध नहीं है। ॥१९॥ णिच्संनियोगे एव चुरादीनामदन्तता ॥४२॥ ‘णिच्' के योग में ही 'चुरादि' धातुओं को अकारान्त माने जाते हैं । 'चुरादि' धातुओं में कुछेक धातु के अकारान्त पाठ किया गया है और वे 'अङ्क' धातु से लेकर 'ब्लेष्क्' धातु पर्यन्त हैं। इससे अन्य धातु अकारान्त हैं ही नहीं । अतः 'अङ्क' इत्यादि धातुओं से णिच् हुआ हो और बाद में उसका लोप न हुआ हो तो ही उसे अकारान्त मानने चाहिए, अन्यथा यहाँ श्रीहेमहंसगणि ने अङ्कण से लेकर ब्लेष्कण पर्यन्त धातुओं को अकारान्त माने हैं, किन्तु धातुपाठ में देखने पर १८४७ 'अङ्कण लक्षणे' और १८४८ ब्लेष्कण दर्शने है, अतः उनके कथनानुसार ये दो ही धातु अकारान्त हो सकते हैं, किन्तु यह सही नहीं है । यहाँ उनकी क्षति-स्खलना प्रतीत होती है। इन दो धातु को छोडकर अन्य भी 'कथ, गण, रच. प्रथ, मद' इत्यादि धातु अकारान्त है। अत: सिर्फ 'अङ्कादीनाम्' कहना ही उचित प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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