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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ९८) 'युजादेर्नवा' ३/४/१८ सूत्र से इस न्याय की अनित्यता दिखायी नहीं पडती है और वस्तुतः इस न्याय का स्वरूप ही अनित्यत्व का कथन करनेवाला होने से उसका अनित्यत्व बताने का कोई फल नहीं है।
___ यह न्याय शायद भोज व्याकरण में णिच्यनित्' स्वरूप में है, इसे छोड़कर अन्यत्र कहीं भी यह न्याय नहीं है।
॥ ९८॥ णिलोपोऽप्यनित्यः ॥ ४१ ॥ “णि' का लोप भी अनित्य है।
"णि' का लोप (व्याकरण में यथाप्राप्त ) सर्वत्र होता है, तथापि क्वचित् णिलोप नहीं होता है । इस न्याय में 'अपि' शब्द पूर्व के 'अनित्यो णिच्चुरादीनाम् ॥४०॥ न्याय के साथ इस न्याय का साम्य बताता है । जैसे पूर्व न्याय में 'चुरादि' धातु से 'णिच्' नित्य होने पर भी क्वचित् नहीं होता है, वैसे यहाँ ‘णि' का लोप भी अनित्य है।
उदा. 'मधवो युधि सुप्रकम्पया ।' यहाँ 'सु' और 'प्र' उपसर्गयुक्त, ण्यन्त 'कम्प्' धातु से 'खल्' प्रत्यय होने पर 'णिच्' लोप नहीं होगा, तब 'सुप्रकम्पि' में 'णि' सम्बन्धित 'इ' का गुण 'ए' होगा और उसका 'अय्' आदेश होने पर 'सुप्रकम्पय' शब्द होगा।
इस न्याय का ज्ञापन 'भीषि भूषि चिन्ति पूजि कथि कुम्बि चर्चि स्पृहि तोलि दोलिभ्य: ५/ ३/१०९ का ‘षितोऽङ्' ५/३/१०७ से शुरू 'अङ्' के अधिकार में पाठ किया, उससे होता है। वह इस प्रकार है-: “णिवेत्त्यासश्रन्थघट्टवन्देश्नः'५/३/१११ से णिगन्त धातु को उत्सर्ग रूप'अन' प्रत्यय होता है । उसका अपवाद 'भीषिभूषिचिन्तिपूजि'- ५/३/१०९ सूत्र है । यही सूत्र अङ् प्रत्यय करता है। यदि इसी सूत्र का पाठ, 'जागुरश्च' ५/३/१०४ से शुरु 'अ' प्रत्यय के अधिकार में किया होता तो भी, 'अ' प्रत्यय के कारण ‘णिच्' लोप सिद्ध हो जाता था और 'णि' लोप करने के बाद 'णि' के गुण का कोई प्रश्न पैदा नहीं होता । यदि 'णि' लोप न होता तो, उसके 'इ' का गुण करने का प्रश्न पैदा होता और तो 'अ' के स्थान में 'अङ्' प्रत्यय करना पड़े, किन्तु यह न्याय न होता तो 'अङ्' या 'अ', दो में से कोई भी प्रत्यय होने पर 'णि' का लोप ही होता तो, 'अङ्' को ङित् किया, वह व्यर्थ हुआ और व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है । इस न्याय का ज्ञापन होने के बाद जब ‘णि' का लोप नहीं होगा तब, यदि 'अ' प्रत्यय किया जायेगा तो 'चिन्ति' और 'पूजि' धातु के 'णि' का गुण होगा और 'चिन्तया' व 'पूजया' रूप होंगे, किन्तु वे इष्ट नहीं है, किन्तु 'चिन्तिया' और 'पूज्या' रूप ही इष्ट है । अतः 'अङ्' प्रत्यय करने से गुण नहीं होगा और 'चिन्तिया' में 'संयोगात्' २/१/५२ से 'इ' का इय् होगा और 'पूज्या' में 'योऽनेकस्वरस्य' २/१/५६ से 'इ' का य् होगा । इस प्रकार 'अङ्' के अधिकार में 'अ' का पाठ किया वह सार्थक होगा।
इस न्याय का स्वरूप ही अनित्य है, अतः इसकी अनित्यता नहीं हो सकती । इस न्याय का आधार खोजने पर इसके लिए लघुन्यास में इस प्रकार का कथन मिलता है। 'अ प्रत्यय के अधिकार में इसी ( भीषि भूषि-' ५/३/१०९) सूत्र का पाठ किया होता तो भी साध्यसिद्धि होनेवाली ही थी,
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