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[32] 'मनयवलपरे हे' १/३/१५ सूत्र के बृहन्न्यास में 'किं मह्यति, किं नाति, किं याहि, किं लिह्यते' उदाहरणों में अनुस्वार और अनुनासिक न होने का कारण बताते हुए आचार्यश्री कहते हैं - 'येन नाव्यवधानमाश्रीयते तेन व्यवहितेऽपि' न्याय द्वारा 'किं मलयति' इत्यादि प्रयोग में प्रस्तुत सूत्र चरितार्थ होने से यहाँ 'किं मह्यति' इत्यादि प्रयोग में अनुस्वार और अनुनासिक नहीं होता है।
'ख्यागि'- १/३/५४ सूत्र की बृहद्वृत्ति में बताया है कि 'कः ख्यातः, नमः ख्यात्रे' पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थमिदं, तेन जिह्वामूलीयो न भवति । बृहवृत्ति के इन शब्दों को स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री ने बृहन्न्यास में स्पष्टतया 'सिद्धे सत्यारम्भो नियमाय' न्याय बताया है।।
इस प्रकार बृहद्वत्ति व बृहन्न्यास में बहुत से न्यायों के निर्देश व उसकी चर्चा प्राप्त होती है, ठीक उसी तरह लघुन्यास में भी न्यायों की चर्चा प्राप्त होती है।
संक्षेप में कहा जाय तो सिद्धहेम की परम्परा में सिद्धहेमबृहद्वृत्ति, शब्दमहार्णव( बृहन्न्यास व लघुन्यास में सभी न्यायों के उल्लेख पाये जाते हैं, इतना ही नहीं कहीं कहीं पाणिनीय इत्यादि अन्य परम्परा में निर्दिष्ट, किन्तु श्रीहेमहंसगणि द्वारा स्पष्टतया जिसका संग्रह नहीं किया है, वैसे न्याय भी पाये जाते है।
प.पू. श्रुतस्थविर विद्वद्वर्य मुनिश्री जम्बुविजयजी महाराज द्वारा हाल ही में सम्पादित सिद्धहेम (लघुवृत्ति) में सूत्रों में बहुत से नये पाठ दिये गये हैं, उसमें से मुख्य दो पाठ यहाँ बताना आवश्यक है । १. 'पूर्वस्याऽस्ये स्वरे य्वोरियुक्' ४// सूत्र में 'य्वोः' के स्थान पर 'योः' और २. त्र्यन्त्यस्वरादेः ७/३/४३ सूत्र में 'व्य' के स्थान पर 'त्र' पाठ है । तथापि 'न्यायसंग्रह' के हिन्दी विवेचन में पूर्व छपी हुयी लघुवृत्ति, न्यायसंग्रह' इत्यादि के अनुसार 'य्वोः' और 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' पाठ ही रखा है। १२. नित्यत्व और अनित्यत्व की व्याख्याएँ
सिद्धहेम की परम्परा में 'न्यायसंग्रह' के प्रथम खण्ड के 'बलवन्नित्यमनित्यात् ॥४१॥ न्याय की वृत्ति में 'नित्य' और 'अनित्य' की व्याख्या बतायी गई है । वह इस प्रकार है - 'यद् यस्मिन् कृतेऽकृतेऽपि च प्राप्नोति तत्तदपेक्षया नित्यम्, यत्तु अकृते प्राप्नोति, न तु कृते, तदनित्यम् ।'
जो कार्य अन्य कार्य करने पर या न करने पर भी होता ही है, वह कार्य अन्य कार्य की अपेक्षा से नित्य कार्य कहा जाता है और जो कार्य अन्य कार्य न होने पर होता है किन्तु अन्य कार्य हो जाने के बाद नहीं हो सकता है वही कार्य अनित्य कहा जाता है । सिद्धहेम की परम्परा में यही एक ही व्याख्या है।
पाणिनीय परम्परा में विभिन्न वैयाकरणों, परिभाषाकारों या वृत्तिकारों ने 'नित्यत्व' और 'अनित्यत्व' की विभिन्न व्याख्याएँ प्रस्तुत की है, तो कुछेक परिभाषाकारों ने इन्हीं व्याख्याओं को ही परिभाषा मान ली है।
'कृताकृतप्रसङ्गि नित्यम्' परिभाषा स्वरूप नित्यत्व की व्याख्या का स्वीकार व्याडिकृत माने गये परिभाषापाठ (क्र. नं. ११७), चान्द्रपरिभाषापाठ (क्र. नं. ७६), कातंत्रपरिभाषापाठ (क्र. नं. ८२), कालापपरिभाषा पाठ (क्र. नं. ५३), जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति (क्र. नं. ७८), पुरुषोत्तमदेवपरिभाषापाठ (क्र. नं. ४३) इत्यादि में प्राप्त है। इसी परिभाषा स्वरूप व्याख्या का ही सिद्धहेम की परम्परा में स्वीकार किया गया है, किन्तु स्वतंत्र परिभाषा के रूप में इसका स्वीकार नहीं किया गया है । ऊपर बताये गए नित्यत्व से विरुद्ध या इसे छोडकर अन्य सभी कार्य को अनित्य कहा जाता है। ऐसे अनित्य कार्य को बतानेवाली/व्याख्या स्वरूप छ: परिभाषाएँ परिभाषेन्दुशेखर में नागेश ने बतायी है 2 ये छ: परिभाषा स्वरूप 'अनित्यत्व' की व्याख्याएँ भी पूर्वकालीन वैयाकरणों के ग्रंथो पर 51. नित्यत्व is defined as an invariable occurance of a rule or operation before as also after;
another rule has been applied.
(Introduction of Paribhasendusekhara by Prof. K. V. Abhyankar pp.10) 52. On the strength of his detailed study of the subject, Nagesu. in his Paribhasendusekhara has
given six kinds of Ind in the Paribhāsās 43, 44, 45, 47, 48 and 49 (Ibidem, pp. 10)
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