SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [31] 'एकद्वित्रिमात्रा हस्वदीर्घप्लुताः' १/१/५ सूत्र के बृहन्न्यास में 'स्वरस्य हुस्वदीर्घप्लुताः' न्याय के बारे में बताया है कि 'ए, ऐ, ओ, औ' के स्थान में हुस्वादेश होने पर 'इ, उ' करने के लिए यह न्याय है । यदि यह न्याय न होता तो, ऐसे ही 'सन्ध्यक्षराणामिदुतौ हुस्वादेशाः' न्याय की कल्पना करनी होती । अन्य वैयाकरण कालाप आदि ने सन्ध्यक्षरों की दीर्घ संज्ञा भी नहीं की है या तो 'अ, आ, इ, ई' इत्यादि में अनुक्रम से ह्रस्व-दीर्घ संज्ञा होती है, वैसे 'ए, ऐ, ओ, औ' की भी अनुक्रम से हस्व-दीर्घ संज्ञा होने की आशंका से ही ‘सन्ध्यक्षराणामिदुतौ हस्वादेशा:' न्याय कहने की आवश्यकता प्रतीत होती है। 'नयुक्तं तत्सदृशे' न्याय सम्बन्धित 'पर्युदास नञ्' के बारे में चर्चा करते हुए 'अधातुविभक्ति' १/१/२७ सूत्र के बृहन्न्यास में बताया है कि 'अधातु' अर्थात् धातु से भिन्न कहने पर विप् प्रत्ययान्त 'छिद्, भिद्' इत्यादि को नाम संज्ञा कैसे होगी? क्योंकि 'विबन्ता धातुत्वं नोज्झन्ति शब्दत्वं च प्रतिपद्यन्ते' न्याय से उसमें धातुत्व रहता ही है। उसका प्रत्युत्तर देते हुए सूत्रकार आचार्यश्री कहते हैं कि 'अधातु' में पर्युदास नञ् है और पर्युदास नञ् में विधि और प्रतिषेध में से विधि ही बलवान् है, अतः 'अधातु' कहने से धातु से भिन्न किन्तु धातु सदृश विबन्त का ग्रहण होगा और प्रतिषेध की प्रवृत्ति नहीं होने से नामत्व की सिद्धि होगी। 'शिघुट' १/१/२८ सूत्र के बृहन्न्यास में 'अप् शिते' प्रयोग के लिए बताया है कि यहाँ 'अप' के बाद में आये हुए 'शि' को 'घुट' संज्ञा नहीं होगी और 'अपः' १/४/५५ से दीर्घ भी नहीं होगा, क्योंकि 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' न्याय से अर्थवान् ‘शि' प्रत्यय का ही ग्रहण होगा । कुछेक लोग 'शि' प्रत्यय को अर्थवान् नहीं मानते हैं क्योंकि यह विभक्ति का आदेश ही है, उनके अनुसार 'प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव ग्रहणम्' न्याय से 'शि' प्रत्यय का ही ग्रहण होगा। 'कादिर्व्यञ्जनम्' १/१/११ सूत्र के बृहन्यास में 'संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवत्' न्याय का स्पष्टरूप से उल्लेख किया गया है। यद्यपि 'लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वात्' न्याय का 'यरलवा अन्तस्थाः' १/१/१५ सूत्र के बृहत्र्यास में स्पष्टतया निर्देश किया गया है तथापि 'न्यायसंग्रह' में उसका संग्रह नहीं किया है । इसका कारण यह हो सकता है कि इस न्याय का उपयोग लिङ्गानुशासन में सर्वसामान्यरूप से किया गया है क्योंकि शब्दों के लिङ्ग की व्यवस्था उसमें बतायी गई है। जबकि शब्दानुशासन अर्थात् व्याकरणशास्त्र में केवल शब्दों की व्युत्पत्ति अर्थात् सिद्धि ही बतायी गई है। बृहन्यास में तथा बृहद्वृत्ति में भी कहीं कहीं संपूर्ण न्याय का उल्लेख न करके सिर्फ उसके एक अंश द्वारा ही संपूर्ण न्याय की सूचना दी जाती है। 'अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम' १/१/२७ सूत्र के बृहन्यास में 'छिद्, भिद्' आदि को 'नाम' संज्ञा होने का कारण बताते हुए 'न (नैते) निबन्ता धातुत्वं जहाति' शब्दों द्वारा 'क्विबन्ता धातुत्वं नोज्झन्ति, शब्दत्वं च प्रतिपद्यन्ते' न्याय को सूचित किया है। इसी 'अधातविभक्ति'-१/१/२७ सत्र के बहन्न्यास में आगे चलकर 'न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या, न केवलः प्रत्ययः' न्याय भी बताया है। जो 'न्यायसंग्रह' के तृतीय खण्ड में संगृहीत है । 'अप्रयोगीत्' १/१/३७ सूत्र के बहळ्यास में पाणिनीय परम्परा निर्दिष्ट 'अनेकान्ता अनुबन्धाः' न्याय है और इसके साथ अन्य एक न्याय का भी निर्देश किया गया है । वह इस प्रकार है - 'न ह्युपाधेरुपाधिर्भवति, विशेषणस्य वा विशेषणम्' इस न्याय का निर्देश अन्य किसी भी परम्परा में नहीं किया गया है। इसका अर्थ यह है कि 'उपाधि' अर्थात् विशेषण, इसका दूसरा विशेषण कदापि नहीं हो सकता है । उदा. 'शुक्ल: पटः' । यहाँ 'शुकलः' विशेषण है और पटः' विशेष्य है इसमें 'शुक्ल:' विशेषण का दूसरा विशेषण नहीं होता है या ररखना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा करने से विशेषणों की अनन्त परम्परा खडी होने की संभावना है। हां, कदाचित् उपमान स्वरूप विशेषण लाया जा सकता है किन्तु वह वास्तव में विशेषण ही नहीं होता है क्योंकि वह प्राय: द्रव्य स्वरूप ही होता है । उदा. 'क्षीर इव शुक्लः पट:' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy