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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) कृत् 'क्विप्' का उदाहरण इस प्रकार है-'गीर्यते इति', 'क्रुत्सम्पदादिभ्यः-'५/३/११४ से 'क्विप्' होगा और प्रथमा द्विवचन का 'औ' प्रत्यय होने पर गिरौ' इत्यादि रूप होंगे । यहाँ भी पूर्व की तरह क्विप् निमित्तक, पदत्व की प्राप्ति नहीं होगी और ‘पदान्ते' २/१/६४ से 'गिरौ' में दीर्घ नहीं होगा।
इस न्याय का ज्ञापक क्वौ' ४/४/११९ सूत्र है । वह इस प्रकार है- 'मित्रं शास्ति मित्रशी:' इत्यादि प्रयोग में, 'क्विप्' को व्यञ्जनादि मानकर 'इसासः शासोऽव्यञ्जने' ४/४/११८ से 'इस्' आदेश सिद्ध ही था, तथापि उसके लिए 'क्वौ' ४/४/११९ सूत्र किया क्योंकि यह न्याय होने से 'क्विप्' प्रत्यय परमें होने पर व्यञ्जननिमित्तक कार्य नहीं होगा, ऐसी आशंका से ही यही 'क्वौ' ४/ ४/११९ किया गया है।
'क्विप्' के साथ साथ उपलक्षण से 'विच्' प्रत्यय पर में होने पर भी व्यंजननिमित्तककार्य नहीं होता है । उदा. 'मुख्यमाचष्टे'-'णिजि', 'मन्वन्-'५/१/१४७ से 'विच्' होने पर 'मुख्य्, तं मुख्यम्' । यहाँ 'विच्' पर में होने पर व्यंजननिमित्तक-'य्वोः प्व्य्व्य ञ्जने लुक्' ४/४/१२१ से 'य' का लोप नहीं हुआ है । यहाँ ऐसा न कहना कि 'णिच्' का लोप होने के बाद, उसका स्थानिवद् भाव होने से, 'विच्' पर में होने पर 'य्' लोप की प्राप्ति ही नहीं है क्योंकि 'य विधि' में स्थानिवद्भाव का 'न सन्धि ङी'.....७/४/१११ से निषेध हुआ है।
इस न्याय की अनित्यता बताना संभव नहीं है क्योंकि यदि इस न्याय की अनित्यता बताना हो तो, कहीं भी 'क्विप्' या 'विच्' प्रत्यय पर में आने पर, व्यंजननिमित्तक कार्य होता है, ऐसा बताना पडे, तो व्यंजनकार्य की अनित्यता की भी अनित्यता कही जा सकती है किन्तु यहाँ सिद्धहेम की परम्परा में 'क्विप्' प्रत्यय पर होने पर कहीं भी व्यंजनकार्य नहीं होता है और हुआ प्रतीत भी नहीं होता है । अतः इस न्याय की अनित्यता नहीं है।
और ऐसा है तो इस न्याय का स्वरूप उचित नहीं है क्योंकि यदि 'क्विप' प्रत्यय पर में होने पर व्यंजननिमित्तक कार्य न होता हो, तो 'क्विपि व्यंजनकार्य न स्यात्' कहना चाहिए, किन्तु इस बात का विरोध करते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि ऐसी शंका न करनी चाहिए क्योंकि यह न्यायसूत्र चिरन्तन है और इसका स्वरूप कोई भी व्यक्ति नहीं बदल सकता है और यह न्याय विविध व्याकरण में सामान्य है । अत: अन्य व्याकरण परम्परा में 'क्विपि व्यञ्जनकार्यमनित्यम्', ऐसे स्वरूप में भी न्याय है । कुछेक 'क्विप्' प्रत्यय पर में होने पर कुछेक कार्य को नित्य मानते हैं । उदा. जयकुमार 'पां पाने' धातु से 'क्विप्' प्रत्यय करके, उसका लोप होने के बाद भी 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि' ४/३/९७ से व्यंजनादि प्रत्ययनिमित्तक ईत्व नित्य करते हैं और 'पी:' रूप सिद्ध करते हैं। उनकी अपेक्षा से इस न्याय में 'अनित्यम्' कहा है।
सिद्धहेम की परम्परा में इस न्याय की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि अन्य परंपरा की प्रक्रिया से, बिल्कुल भिन्न प्रकार की प्रक्रिया यहाँ है । अतः इस न्याय के बिना भी कार्यसिद्धि हो सकती है, और 'क्विप्' व्यंजनादि होने पर भी उसका पूर्णतः लोप हो जाने के बाद सामान्यतया
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