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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ९१)
२६३ शब्द का प्रयोग जहाँ तक होता है वहाँ तक अर्थात् 'अष्टादश' तक । उनमें से 'अष्टादश शब्द तक' अर्थ यहाँ लेना है और श्रीहेमहंसगणि ने भी यही अर्थ लिया है तथापि श्रीलावण्यसूरिजी ने 'अत्र केचन' कहकर अन्य किसी के मत से 'दशन्' संख्यावाचक शब्द पर्यन्त अर्थ लेना है, ऐसा बताकर उसका खंडन किया है किन्तु यही मत किसका है, उसकी स्पष्टता नहीं की है।
___ यह न्याय सङ्ख्येय अर्थवाचक संख्याओं के अस्तित्व का केवल बोध कराता है किन्तु इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि इस न्याय के पूर्व उसमें सङ्ख्येयत्व नहीं था। दूसरी बात यह कि जो बात लोक से प्राप्त हो, उसमें शास्त्र का व्यापार नहीं होता है और वही बात लोकप्रसिद्ध होने से, उसके लिए न्याय का आश्रय करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
श्रीलावण्यसूरिजी ने विविध कोश इत्यादि के उदाहरण देकर यही 'एक' से 'अष्टादश' पर्यन्त संख्यावाचक शब्दों में केवल सङ्ख्येयत्व ही है, और वह लोकप्रसिद्ध ही है ऐसा सिद्ध कर दिखाया है। अन्त में वे कहते हैं कि ये 'एक' से 'अष्टादश' पर्यन्त की संख्या केवल गुणिपरक (सङ्ख्येयत्ववत् ) है और विंशति आदि संख्याएँ गुणपरक और गुणिपरक (सङ्ख्यानत्ववत् और सङ्ख्येयत्ववत् ) मानी जाती है और वह शब्दशक्ति के स्वभाव से ही है, उसके लिए कोई न्याय इत्यादि की आवश्यकता नहीं है, ऐसा महाभाष्य इत्यादि में बताया है।
इस न्याय के श्रीहेमहंसगणि ने बताये हुए ज्ञापक के लिए श्रीलावण्यसूरिजी को पूर्णतः अरुचि है । वे कहते हैं कि अमुक संख्या संख्येयवृत्ति है ऐसा ज्ञापन करना उचित नहीं है और ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि अमुक संख्या केवल संख्येयवृत्ति है क्योंकि 'सुज्वार्थे सङ्ख्या सङ्ख्येये सङ्ख्यया बहुव्रीहिः' ३/१/१९सूत्र में संख्येयवृत्ति संख्या का ग्रहण किया है किन्तु संख्येयमात्रवृत्ति सङ्ख्या का ग्रहण नहीं किया है और अगले सूत्र में विंशति' इत्यादि को भी सङ्ख्येयवृत्ति के रूप में ग्रहण किया है ।
इसके अतिरिक्त शास्त्रकार आचार्यश्री ने भी प्रायः प्रत्येक सूत्र की बृहवृत्ति में उसी सूत्रगत शब्दों और उनसे किस न्याय का ज्ञापन होता है, वह बता दिया है किन्तु 'सुज्वार्थे सङ्ख्या '- ३/ १/१९ की बृहद्वृत्ति में, इसी सूत्र से, प्रस्तुत न्याय का ज्ञापन होता है ऐसा कहीं नही कहा है, इसलिए भी इस प्रकार उसका ज्ञापकत्व बताना उचित नहीं है।
इस न्याय की अनित्यता बताते हुए श्रीहेमहंसगणि 'आसन्नदशा' का अर्थ नव अथवा एकादश करते हैं और आसन्ना दश' का अर्थ करते हुए कहते हैं कि 'आसन्ना दश सङ्ख्या येषां' ऐसा वाक्य भी होगा।
किन्तु 'आसन्ना दश' का यही अर्थ सही प्रतीत नहीं होता है। श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यदि 'अष्टादश' पर्यन्त संख्या-शब्द का संख्येयत्व आपकी पद्धति से ज्ञापकसिद्ध हो तो ही उसका अनित्यत्व बताने की आवश्यकता है, किन्तु ऊपर बताया उसी तरह वह ज्ञापकसिद्ध नहीं है और किसी भी प्रकार के प्रमाण बिना 'दशशब्दान्त' संख्याओ का सङ्ख्येयमात्रवृत्तित्व किस प्रकार दूर हो सकता है ? अतः ‘दशानामासन्ना' ऐसा ही वाक्य हो सकता है या तो 'आसन्नादूरा-' ३/१/२०
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