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________________ २३६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) करके 'पुनः प्रसङ्गविज्ञानात् सिद्धम्' न्याय की सिद्धि करना संभव नहीं है तथापि लक्ष्यानुसार इस न्याय के अनित्यत्व का आश्रय करके, 'पुन: प्रसङ्गविज्ञानात् सिद्धम्' न्याय का स्वीकार हो सकता है और आचार्यश्री ने भी बहुत से स्थान पर 'पुन: प्रसङ्गविज्ञानात्'- न्याय को बताया है और आश्रय किया है। संक्षेप में जहाँ परसूत्र की ही प्रवृत्ति इष्ट हो वहाँ 'स्पर्द्ध' '७/४/११९ सूत्रका नियमार्थपरक अर्थ करना और जहाँ प्रथम परसूत्र की और बाद में पूर्वसूत्र की प्रवृत्ति इष्ट हो वहाँ 'स्पर्द्ध' ७/४/ ११९ सूत्र का केवल विधिपरक अर्थ करना । ॥८१॥ द्वित्वे सति पूर्वस्य विकारेषु बाधको न बाधकः ॥२४॥ धातु का द्वित्व होने पर , उसका जो पूर्व भाग/खंड, उसका परिवर्तन/रूपान्तर करते समय, उसी रूपान्तर के बाधक सूत्र, अपनी बाध्यविधि का बाध करने में समर्थ नहीं होते हैं। ‘स्पर्द्ध परः, बलवन्नित्यमनित्यात्' इत्यादि न्यायों का यह अपवाद है । उदा. 'अचीकरत्' यहाँ 'अचकरत्' होने के बाद 'असमानलोपे सन्वल्लघुनि डे' ४/१/६३ से 'सन्वद्भाव' होने की प्राप्ति है और 'लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः' ४/१/६४ से दीर्घविधि की प्राप्ति है । इन दोनों में दीर्घविधि पर और नित्य है, अतः वही प्रथम होनी चाहिए किन्तु इस न्याय के कारण सन्वद्भाव पूर्व खंड के विकार सम्बन्धित होने से, उसकी बाधक दीर्घविधि, सन्वद्भाव का बाध करने में समर्थ नहीं होती है । अत: प्रथम सन्वद्भाव होगा और बाद में दीर्घविधि होगी । यदि दीर्घविधि ही प्रथम होती तो 'अचाकरत्' ऐसा अनिष्ट रूप होता। इस न्याय का ज्ञापन आगुणावन्यादेः' ४/१/४८ में बताये हुए 'नी' इत्यादि आगम के वर्जन से होता है । वह इस प्रकार है :- ‘वनीवच्यते, नरिनति' इत्यादि रूप में द्वित्व हुए धातु के पूर्वभाग के 'अ' का 'आ' होने की प्राप्ति है, उसका निषेध करने के लिए 'नी' इत्यादि आगम का वर्जन किया है । यदि यह न्याय न होता तो 'आ' का अभाव दूसरी तरह भी सिद्ध हो सकता है। धातु का द्वित्व होने के बाद, पूर्वभाग के 'अ' का 'आ' और 'इ, उ' इत्यादि का गुण 'आगुणौ' -४/१/४८ से होता है, जबकि 'वञ्च स्रंस ध्वंस-' ४/१/५० और अन्य सूत्र से 'नी' इत्यादि का आगम होता है। ये सूत्र ‘आगुणौ'-४/१/४८ का अपवाद है । अतः ‘आगुणौ'- ४/१/४८ का बाध करके 'नी' इत्यादि आगम ही प्रथम होगा, बाद में 'आ' या 'गुण' नहीं होगा। किन्तु यह न्याय होने से, हालाँकि 'नी' इत्यादि आगम ही प्रथम होगा तथापि वही 'नी' इत्यादि आगम 'आत्व' या 'गुण' का बाध करने में समर्थ नहीं होंगे । अतः 'नी' इत्यादि आगम और आत्व दोनों होने पर 'वानीवच्यते, नारिनति' इत्यादि अनिष्ट रूप होंगे, ऐसी आशंका से ही आचार्यश्री ने 'नी' इत्यादि आगम का वर्जन किया है । इस न्याय की अनिश्चितता/अनित्यता प्रतीत नहीं होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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