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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.८०) २३५ सिद्धहेम की परम्परा में भी 'न प्रादिरप्रत्ययः' ३/३/४ सूत्र से 'प्रादि' का धातु के अवयव के रूप में निषेध किया है । अतः यहाँ 'अच्' में ही धातुत्व है, ऐसा मानकर अच्' से पूर्व ही ‘अड् आगम होता है किन्तु 'उद्' से पूर्व 'अड्' आगम नहीं होता है तथापि 'उदच उदीच्' २/१/१०३ सूत्र में 'उदयति' प्रयोग किया होने से ‘णि' के लिए समग्र/संपूर्ण उदच्' का ही प्रकृतित्व स्वीकृत है ऐसा सिद्ध होता है। इसके बारे में विशेष चर्चा करते हुए 'तरंग' नामक टीका में श्रीलावण्यसूरिजी 'उदीचयति' रूप को ही उचित मानते हैं । वे कहते हैं कि संपूर्ण 'उदच्' को ही प्रकृति मान लिया जाय तो, सब सही हो जाता है किन्तु ऐसा मानने पर 'णि' प्रत्यय से प्रयुक्त क्रियावाचित्व भी संपूर्ण समुदाय का ही मानना पडेगा और तो संपूर्ण समुदाय को ही धातुत्व प्राप्त होगा किन्तु उसके अवयव को धातुत्व प्राप्त नहीं होगा । जबकि जहाँ स्वाभाविक धातु हो वहाँ, उपसर्ग सहित धातु, विशिष्ट क्रियावाची होने पर भी उपसर्ग रहित धातु का सामान्य क्रियावाचित्व अक्षत ही रहता है । अत: उपसर्ग दूर करने पर भी, धातुत्व दूर नहीं होता है, इतना वहाँ विशेष है । यहाँ आख्यात का अर्थ अथवा 'करोति' अर्थ में 'णि' प्रत्यय जिससे होता है, उसका धातुत्व माना जाता है और 'णि' होने के बाद, उपसर्ग को अलग करने पर, धातु के अवयवत्व की आपत्ति आने से आनर्थक्य का प्रसंग उपस्थित होता है । अतः संपूर्ण 'उदच्' को प्रकृति न मानना चाहिए और 'उदच उदीच्' २/१/१०३ में ‘णि' का वर्जन न करना क्योंकि वह अनर्थक है तथा ' उदीचयति' और अद्यतनी में 'उदैचिचद्' रूप ही उचित है। जबकि शास्त्रकार आचार्यश्री ने स्वयं उदयति' रूप को ही इष्ट माना है । वही विरोधाभास परम्परानुसारी है, अत: उसका सैद्धान्तिक स्तर पर कोई समाधान नहीं मिल पाता है क्योकि 'न प्रादिरप्रत्ययः' ३/३/४ सूत्र के 'अभ्यमनायत्' और 'प्रासादीयत्' रूप, 'उद्' और 'अच्' को पृथक् करने के लिए पर्याप्त/बलवान् सबूत है और 'उदच' में 'एकस्वरत्व के कारण ' नैकस्वरस्य' ७/४/ ४४ से 'उदच्' और 'उदीच्' के अन्त्यस्वरादि के लोप का निषेध होता है, किन्तु स्थितस्य गतिश्चिन्तनीया' न्याय से 'उदयति' रूप इसी परम्परा में स्वीकृत है । अतः इस न्याय और इसके ज्ञापक के रूप में 'णि' वर्जन को स्वीकार करना चाहिए, ऐसा मेरा अपना मत है। इस न्याय की अनित्यता के बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'सकृद्गते स्पढ़ें-' न्याय और 'पुन: प्रसङ्गविज्ञानात् सिद्धम्' न्याय परस्पर विरुद्ध हैं । अतः 'प्रियतिसृणः कुलस्य' उदाहरण में 'आगमात्सर्वादेशः' न्याय से बाधित 'नोऽन्त' 'तिसृ' आदेश होने के बाद भी होगा ही । यही अर्थ/प्रयोजन 'स्पर्धे' ७/४/११९ सूत्र का केवल विधिपरक अर्थ करने से भी सिद्ध हो सकता है । जबकि 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ सूत्र की नियमपरक व्याख्या करने पर 'सकृद्गते'-न्याय का अर्थ सिद्ध होता है। यद्यपि सिद्धहेम की परंपरा में 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ सूत्र को परिभाषा सूत्र माना है और परिभाषा की 'अनियमे नियमकारिणी' व्याख्या का स्वीकार करने पर 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ का नियमपरक अर्थ की व्याख्या करना चाहिए । अतः यही 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ सूत्र का विधिपरक अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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