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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) यह न्याय जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति को छोड़कर सिद्धहेम के पूर्वकालीन किसी भी परिभाषासंग्रह में नहीं है, जबकि पश्चात्कालीन पाणिनीय परम्परा के सभी परिभाषासंग्रह में यह न्याय है । ॥ ८० ॥ सकृद्गते स्पर्द्धे यद्वाधितं तद्बाधितमेव ॥ २३ ॥
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एक साथ दो सूत्र की प्राप्ति होने पर / तुल्य बल के विरोध में एक बार जिसका बाध होता है, वह बाधित ही माना जाता है ।
' धातूनामनेकार्थत्वात्' अर्थात् धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं या 'गत्यर्था ज्ञानार्था:' अर्थात् गति अर्थवाले सब धातु ज्ञान अर्थवाले कहे जाते हैं, उसी न्याय से यहाँ भी 'गते' का अर्थ ' ज्ञाते'
करना ।
'स्पर्द्धा' की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि दो प्रकार की विधियाँ अन्यत्र सावकाश हो और यहाँ एक ही स्थान पर उन दोनों विधियों की प्राप्ति हो तो, उन दोनों के बीच स्पर्धा हुई मानी जाती है । इसी स्पर्धा के समय उन्ही दो सूत्रों में से कोई भी एक सूत्र किसी भी कारण से पहले बाधित हुआ हो तो वह बाधित ही माना जाता है अर्थात् बाधक सूत्र की प्रवृत्ति होने के बाद भी बाधित सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होती है ।
उदा. 'द्वयोः कुलयोः'। यहाँ 'द्वि ओस्' स्थिति में 'आदेशादागमः ' न्याय से 'अनाम्स्वरे नोऽन्तः ' १/४ / ६४ से 'नोऽन्त' की प्राप्ति है किन्तु उसका 'आद्वेरः ' २/१/४१ से बाध होगा क्योंकि
सूत्र पर है और वह अन्तरङ्ग कार्य है । अतः 'अनाम्स्वरे नोऽन्तः ' १ / ४ / ६४ बाध्य होगा और 'आद्वेरः ' २/१/४१ बाधक होगा । अब 'आद्वेर: ' २/१/४१ से 'इ' का 'अ' करने के बाद, 'एबहुस्भोसि' १/४/४ से 'द्व' के 'अ' का 'ए' करने के बाद पुनः 'अनाम्स्वरे नोऽन्तः' १/४/ ६४ की प्राप्ति होगी, किन्तु वह पहले 'आद्वेरः ' २/१/४१ से बाधित हुआ होने से, यहाँ भी बाधित ही माना जायेगा और 'नोऽन्त' नहीं होगा ।
इस न्याय का ज्ञापन 'उदच उदीच्' २/१/१०३ में किये गए ' णि वर्जन' से होता है । 'उदञ्चमाचष्टे इति णौ उदयति ।' इसी प्रयोग में 'उदयति' रूप की सिद्धि करने के लिए 'उदच उदीच्' २/१/१०३ सूत्र में 'णि' का वर्जन किया है। यदि 'णि' का वर्जन न किया होता तो भी 'उदच्' का 'णि' प्रत्यय पर में होने से 'उदीच्' आदेश करने के बाद भी, 'त्र्यन्त्यस्वरादेः ' ७/४/४३ से अन्त्यस्वरादि का लोप होकर 'उदयति' रूप सिद्ध हो सकता था अर्थात् 'णि' का वर्जन करने की कोई आवश्यकता न थी किन्तु यह न्याय होने से 'णि' प्रत्यय पर में होने पर अन्त्यस्वरादि का लोप होने से पहले, विशेषविधि होने से 'उदच्' का 'उदीच्' आदेश होता तो, 'त्र्यन्त्यस्वरादेः ' ७/४/४३, 'उदच उदीच्' २/१/१०३ से एक बार बाधित हो जाता है । अतः 'उदीच्' आदेश होने के बाद भी 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ की प्रवृत्ति नहीं होती है । अतः 'उदयति' के स्थान पर 'उदीचयति' रूप होगा, किन्तु वह अनिष्ट है । अतः 'उदच उदीच्' २/१/१०३ में 'णि' का वर्जन आवश्यक है और 'उदीच्' आदेश किये बिना, अन्त्यस्वरादि का लोप करके ही 'उदयति' रूप सिद्ध होता है।
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