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________________ २३० न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) आ.श्रीलावण्यसूरिजी ने, इस न्याय का खंडन करने से पहले पूर्वपक्ष के रूप में निर्दिश्य मानस्यैवादेशाः स्युः' का प्रतिपादन किया है और खंडन करते समय उसमें से एवकार निकालकर 'निर्दिश्यमानस्यादेशाः' कहकर खंडन किया है वह उचित नहीं लगता है। यह न्याय व्याडि के परिभाषासूचन, शाकटायन, कातंत्र की दुर्गसिंह और भावमिश्रकृत परिभाषावृत्तियों, जैनेन्द्र, भोज व्याकरण में नहीं है । व्याडि के परिभाषासूचन, शाकटायनपाठ व कातंत्र की दुर्गसिंहकृत वृत्ति में 'औपदेशिक प्रायोगिकयोरौपदेशिकस्य' न्याय का शायद यही अर्थ है। ॥७९॥ अन्तरङ्गानपि विधीन् यबादेशो बाधते ॥२२॥ 'यप्' आदेश अन्तरङ्ग विधियों का भी बाध करता है। यहाँ 'अनञः क्त्वो यप्' ३/२/१५४ सूत्र से होनेवाला 'यप्' पदद्वयापेक्षी है और प्रत्ययाश्रित है, अतः वह बहिरङ्ग है । 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' और 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' उन दोनों न्यायों का बाधक यह न्याय है अर्थात् बहिरङ्गस्वरूप यबादेश सर्व अन्तरङ्गविधियों का बाध करता है। उदा. 'प्रशम्य' । यहाँ 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'शम्' धातु से 'क्त्वा' प्रत्यय होगा तब 'अहन्पञ्चमस्य क्विक्ङिति' ४/१/१०७ से प्रथम दीर्घ होने की प्राप्ति है । वह प्रकृतिआश्रित होने से और एक पदापेक्षी होने से अन्तरङ्ग है। जबकि 'क्त्वा' का 'यप्' आदेश ऊपर बताया उसी प्रकार पदद्वयापेक्षी और प्रत्ययाश्रित होने से बहिरङ्ग है । अतः 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' न्याय से दीर्घविधि पहले होने की प्राप्ति है, तथापि इस न्याय से उसका बाध होकर बहिरङ्गस्वरूप 'क्त्वा' का 'यप्'आदेश प्रथम होगा, बाद में धुडादि प्रत्यय न मिलने से दीर्घविधि नहीं होगी और 'प्रशम्य' रूप सिद्ध होगा । इस न्याय का ज्ञापन 'यपि चादो जग्ध्' ४/४/१६ सूत्रगत 'यपि च' शब्द से होता है। वह इस प्रकार है :- 'प्रजग्ध्य' रूप सिद्ध करने के लिए सूत्र में 'यपि च' शब्द रखा है। यदि 'यपि च' शब्द न रखा होता तो भी 'अद्' धातु का तकारादि 'कित्' प्रत्यय पर में होने पर 'जग्ध्' आदेश होता है और 'जग्धि' रूप होता है। यदि 'क्त्वा' का 'यप्' आदेश करने से पूर्व ही 'अद्' का 'जग्ध्' आदेश होता तो 'यपि च' शब्द बिना भी ‘क्त्वा' प्रत्यय तकारादि 'कित्' होने से जग्ध्' 'आदेश हो सकता है तथापि 'यपि च' शब्द रखा, उससे ज्ञापित होता है कि इस न्याय के कारण 'अद्' का 'जग्ध्'आदेश होने से पूर्व ही 'क्त्वा' का 'यप्' आदेश होगा तब, यदि 'यपि च' शब्द न रखा होता तो 'यप्' आदेश होने के बाद तकारादि कित् प्रत्यय न मिलने से, 'प्रजग्ध्य' रूप में, जो 'जग्ध्' आदेश हुआ है, वह न होता । अतः 'यपि च' शब्द इस न्याय का ज्ञापक है । अत एव कहा है : "तादौ किति जग्धि सिद्धे, यपि चेति यदुच्यते । ज्ञापयत्यन्तरङ्गाणां यपा भवति बाधनम् ॥" १. सिद्धहेमशब्दानुशासन बृहद्वृत्ति-द्वितीय अध्याय के अन्त में दिये गये 'न्यायसमुच्चय' की न्यायार्थसिन्धु टीका-पृ. १३९, पंक्ति ५२ २. एजन, पृ. १३९, पंक्ति ६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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