SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) पाणिनीय व्याकरण में 'पूर्वादिनि' (पा. ५/२/८६ ) और 'सपूर्वाच्च' (पा. ५/२/८७) सूत्र पूर्वाच्च (पा. ५/२/८७) को इस न्याय का ज्ञापक माना है किन्तु सिद्धहेम में, श्रीहेमचन्द्राचार्यजी ने 'माषीकेष्टकस्यान्तेऽपि भारितूलचिते' २/४/ १०२ में स्थित ' अन्ते पि' शब्द को इस न्याय का ज्ञापक माना है । अतः उसका ही स्वीकार करना चाहिए । २१४ इस न्याय के ज्ञापक के बारे में आगे चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी बताते हैं कि सिद्धहेम की परम्परा में 'मालेषीकेष्टकस्यान्तेऽपि'- २/४/ १०२ सूत्र के 'अन्तेऽपि' अंश से यह न्याय प्रत्यय - भिन्नविधिविषयक है, ऐसा ज्ञापन होता है। अतः यह न्याय, इस परम्परा में प्रत्ययाप्रत्ययविधि साधारण है, ऐसा माना जाता है और जहाँ प्रत्ययभिन्नविधिविषय या प्रत्ययविधि हो वहाँ इस न्याय की अप्रवृत्ति मालूम देती हो तो, श्रीहेमहंसगणि ने बताया है, उसी प्रकार 'केवलसखिपतेरौ : ' १/ ४ / २६ सूत्र के 'केवल' शब्द से इस न्याय की अनित्यता जान लेना । इस न्याय के द्वितीय ज्ञापक 'पूर्वमनेन सादेश्चेन्' ७/१/१६७ सूत्र के 'सादेश्व' शब्द के बारे में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यदि यह न्याय न होता तो 'पूर्वमनेन'-७/१/१६७ स्वरूप सूत्र से ही 'कृतपूर्व' इत्यादि में भी तदन्तविधि होनेवाली ही थी, अतः 'तदन्त' ग्रहण करने के लिए रखे गए 'सादेश्च' शब्द का वैयर्थ्य स्पष्ट ही है, और वह व्यर्थ होकर ज्ञापन करता है कि 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' न्याय है । इस न्याय का ज्ञापन होने के बाद इस न्याय से 'पूर्व' शब्द भी नाम होने से तदन्तविधि नहीं होगी, अतः 'कृतपूर्वम्' इत्यादि से 'इन्' प्रत्यय करने के लिए 'सादेश्च' कहना आवश्यक ही है । अतः इस प्रकार वह सार्थक भी होगा । इस न्याय का ज्ञापन होने के बाद 'मालेषीकेष्टकस्यान्तेऽपि' - २/४/ १०२ सूत्र का 'अन्ते' शब्द का ग्रहण भी सार्थक ही होगा । किन्तु ऐसा करने पर प्रत्ययविधिविषय की संभावना हो तो, 'मालेषीकेष्टकस्यान्तेऽपि '-२/ ४ / १०२ सूत्रगत 'अपि' शब्द व्यर्थ होता है । अतः प्रत्ययभिन्नविधिविषय में 'अन्तेऽपि ' शब्द द्वारा ही ज्ञापन करना उचित है । दूसरी बात यह है कि 'केवलसखिपतेरौ : ' १/४/२६ सूत्र के 'केवल' शब्द को ज्ञापक माना है, वह प्रत्ययविधिविषय के अभाव में जानना । यदि प्रत्ययविधिविषय का आश्रय किया जाय तो 'मालेषीकेष्टकस्यान्तेऽपि ' - २ / ४ / १०२ सूत्र का 'अन्तेऽपि ' शब्द सिर्फ स्पष्टता करने के लिए ही है और 'केवलसख़िपतेरौ : ' १/४ / २६ सूत्रगत 'केवल' शब्द सार्थक होगा । यदि अनित्यत्व के ज्ञापन की आवश्यकता प्रतीत हो तो, अनित्यता के ज्ञापक के रूप में 'पुरुषहृदयादसमासे' ७/९/७० सूत्रगत 'असमासे' शब्द को जानना । वह इस प्रकार है :- पुरुष और हृदय के 'नाम' संज्ञा के रूप में ग्रहण किया होने से 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः ' न्याय से प्राप्त, तदन्तविधि के निषेध के कारण 'परमपुरुष' इत्यादि समास से तदन्तविधि नहीं होनेवाली है | अतः उसका निषेध करने के लिए 'असमासे' पद रखा, वह व्यर्थ होकर इस न्याय की अनित्यता बताता है । और ऊपर बताया उसी तरह 'दन्त-पाद- नासिका - २/१/१०१ सूत्र में इस न्याय के प्रत्यय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy