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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७५) २१३ में 'इन्द्रादित्व' की विवक्षा की है। दोनों परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते हैं । उसका प्रत्युत्तर देते हुए वे स्वयं कहते हैं कि 'इन्द्रे' का क्या अर्थ ? 'इन्द्र' शब्द जिसके आदि में है, वैसा शब्द पर में हो तो, अतः 'गवेन्द्रयज्ञ' में ही 'ओ' का 'अव' आदेश होगा। जबकि 'गवेन्द्र' में 'आद्यन्तवदेकस्मिन्' न्याय से 'अव' आदेश होगा, किन्तु यह बात हमने लघुन्यासकार की मान्यतानुसार बतायी है । जबकि वृत्तिकार की मान्यतानुसार यहाँ अवयवप्राधान्य की विवक्षा ही है क्यों कि वृत्ति में कहा है कि 'इन्द्रे' का क्या अर्थ ? इन्द्र शब्दगत 'इ' पर में आया हो तो, ऐसा अर्थ करने पर जैसे 'गवेन्द्र' में 'ओ' का 'अव' आदेश होता है, वैसे 'गवेन्द्रयज्ञ' में भी 'ओ' का अव' आदेश होता है अर्थात् 'इ' स्वर जिसमें है ऐसे इन्द्र शब्द की ही प्रधानता है। जबकि श्रीलावण्यसूरिजी इसके बारे में कहते हैं कि लघुन्यासकार ने यहाँ अवयवप्राधान्य की विवक्षा नहीं की है। वे कहते हैं कि लघुन्यासकार ने न्यास में 'इन्द्रे' शब्द के बारे में चर्चा करते हुए कहा है कि 'स्वर इत्यस्याधिकरणमिन्द्रे इति, ततस्तदादाविति वक्तव्यम्' अर्थात् 'इन्द्रे' शब्द अनुवर्तमान ‘स्वरे' का विशेषण ही है और 'इन्द्रे' शब्द में स्थित सप्तमी विभक्ति 'इ' रूप स्वर के अधिकरणत्व का ही कथन करती है तथा 'तदादाविति वक्तव्यम्' वाक्य भी वृत्तिकार श्रीहेमचंद्राचार्य जी के अभिप्राय का ही वर्णन करता है और वृत्तिकार ने 'इन्द्रशब्दस्थे स्वरे परे' कहा है। अतः वहाँ 'इन्द्र' या 'इ' स्वरूप अवयवप्राधान्य की विवक्षा है ही नहीं । किन्तु न्यासकार का दूसरा कथन/वाक्य, इसी मान्यता के अनुकूल नहीं है क्यों कि उन्होनें आगे कहा है कि 'केवले च व्यपदेशिवद्भावाद् भवति' । इसी वाक्य के आधार पर श्रीहेमहंसगणि ने, 'इन्द्रे' का अर्थ 'इन्द्रादौ शब्दे परे' किया है, ऐसा मानना पडता है। संक्षेप में लघुन्यासकार की टिप्पणी द्विअर्थी या तो संदिग्ध प्रतीत होती है। अतः 'इन्द्रे' १/ २/३० सूत्र के लिए इन्द्रादित्व की कल्पना और अवयवप्राधान्य की विवक्षा के लिए उसका आश्रय न लेना चाहिए। और वस्तुतः वृत्तिकार ने 'इन्द्रस्थे स्वरे परे' कहने से ही 'गवेन्द्रयज्ञ' में भी 'ओ' का 'अव' आदेश हो जायेगा । उसके लिए व्यपदेशिवद्भाव' या 'अवयवप्राधान्य की विवक्षा' करने की कोई आवश्यकता हमें प्रतीत नहीं होती है। इस न्याय के ज्ञापक 'मालेषीकेष्टकस्यान्तेऽपि भारितूलचिते' २/४/१०२ में स्थित 'अन्तेऽपि' शब्द है । उसका ज्ञापकत्व सिद्ध करने में श्रीलावण्यसूरिजी ने 'विशेषणमन्तः'७/४/११३ परिभाषा की प्रवृत्ति की है । जबकि श्रीहेमहंसगणि ने अवयवप्राधान्य की विवक्षा की है। इस न्याय के स्वीकार से ही 'पूर्वमनेन सादेश्छन्' ७/१/१६७ सूत्र में 'सादेश्च' शब्द चरितार्थ होता है। अन्यथा पूर्व शब्द से जैसे 'इन्' प्रत्यय होता है वैसे 'कृतपूर्व' शब्द से भी 'इन्' प्रत्यय हो सकता है । यहाँ 'कृतपूर्व' में 'इन्' प्रत्यय करने के लिए श्रीलावण्यसूरिजी ने 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा की प्रवृत्ति की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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