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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७२ ) १९७ नहीं हो सकता है क्योंकि वह 'अश्चः' शब्द शाब्दबोध का विषय है और पद, वाक्य इत्यादि का विवेचन करनेवाले वैयाकरणों का सिद्धान्त है कि शाब्दबोध में शब्द का उपस्थित जो अर्थ या शब्द द्वारा प्रकट होनेवाला जो अर्थ, उसका ही ज्ञापन होता है । अत एव 'तदादेशस्य' अंश का ज्ञापकत्व बताने के लिए, न्यायवृत्ति में जैसा बताया है वैसा ही उपाय बताया है ऐसा प्रतीत होता है । यद्यपि 'सिद्ध बृहद्वृत्ति' में केवल 'शकारस्य सकारोपदिष्टं कार्य विज्ञायते' कहा है, किन्तु 'तदादेशस्य' कहा नहीं है तथापि 'भवान्शेते' में 'त्स' आदेश न हो, इसलिए 'तदादेशस्य' कहना आवश्यक है । न्यासकार ने इस न्याय को किंचित् भिन्न प्रकार से बताया है । वह इस प्रकार है । 'इन सः त्सोऽश्चः' १/३/१८ सूत्र में बताये हुए प्रत्युदाहरण, 'षट्श्च्योतति' की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि 'दन्त्यापदिष्टं कार्यं तालव्यस्यापि भवति, परं दन्त्यस्थाननिष्पन्नस्य न तु सर्वस्य ।' यहाँ तदादेशस्य के स्थान पर वैसे ही अर्थयुक्त वाक्य रखा गया है । 'अश्च: ' संपूर्ण न्याय के ज्ञापक के रूप में किस प्रकार मान्य हो सकता है, उसका उपाय बताते हुए वे कहते हैं कि 'श्च' की प्रवृत्ति 'श्च्योतति' इत्यादि को छोड़कर कहीं भी प्राप्त नहीं है, वही बात सही है | अतः 'श्च' को 'श्च्योतति' आदि में स्थित 'श्च' का ही अनुकरण मानने पर इस 'श्च' के वर्जन को संपूर्ण न्याय का ज्ञापक माना जा सकता है अर्थात् 'तदादेशस्य' अंश का भी वह ज्ञापक बनता है । कुछेक वैयाकरण के मतानुसार प्रक्रियाभेद करने पर, इस न्याय की कोई आवश्यकता नहीं है, वे कहते हैं कि यद्यपि सब को 'स' के स्थान पर हुए 'श' को भी 'स' की तरह कार्य करना ही इष्ट है, अतः उनको सूत्र की व्यवस्था / स्थापना ही इस प्रकार से करनी चाहिए कि, जिससे सकार को उद्देश्य बनाकर कहा हुआ कार्य करते समय 'श' असत् हो जाय और वही सकार ही है, ऐसा मानकर कार्य हो । सिद्ध व्याकरण में यद्यपि 'सस्य शषौ' १/३/६१ सूत्र में 'हदिर्हस्वरस्यानु नवा' १/३/ ३१ सूत्र से 'अनु' पद की अनुवृत्ति आती है । अतः 'प्राप्यमाण' अर्थात् धातु या नाम सम्बन्धित सर्व कार्य करने के बाद ही 'स' का 'श' करना चाहिए, ऐसा करने से 'असासक्, मधुक्, मूलवृट्' इत्यादि प्रयोग में 'स' का 'श' करने से पूर्व / पहले ही 'संयोगस्यादौ स्कोर्लुक्' २/१/८८ से 'स' का लोप होगा और रूप सिद्धि होगी । इस प्रकार प्रत्येक प्रयोग में इस न्याय की प्रवृत्ति बिना ही प्रयोगसिद्धि होती है । यही बात श्रीमहंसगणि ने न्यास में बतायी है । वे कहते हैं कि इस प्रकार ऐसे उदाहरणों से इस न्याय की प्रवृत्ति उचित नहीं है, किन्तु श्रीहेमचन्द्राचार्यजी ने धातुपारायण में इस न्याय की प्रवृत्ति की है, अतः हमने भी वैसा किया है। जबकि श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि ऊपर बताया उसी प्रकार से इस न्याय के बिना भी उपर्युक्त प्रयोग की सिद्धि होती है तथापि 'अश्च: ' पद के आधार पर, अनुमित इस न्याय की प्रवृत्ति करने में कोई बाध प्रतीत नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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